वह नन्हा सा बालक
उन्मुक्त आकाश में
उड़ान का स्वप्न लिए
चुनता था दूध की पन्नियाँ
बीनता था टूटी काँच
जमा करता बिसलरी की बोतलें
जब बोरे भर जाते
शान से कंधे पे उठा
इस तरह से चलता
जैसे कोई खजाना हाथ लगा हो
बेच देता बीस रुपए किलो के भाव से
अपनी जमा की हुई दौलत
और सौंप देता माँ को ले जाकर
बहुत दिनों से देख रही थी
विद्यालय की खिड़की से परख रही थी
बीच बीच में कनखियों से
वह भी देख लेता मुझे
एक दिन इशारे से बुलाया
बेटे, तुम विद्यालय आया करो
मेरी माँ बीमार रहती है
पैसे नहीं ले जाऊँगा तो खाऊँगा क्या
समझाया उसे-
सरकारी विद्यालय में पैसे नहीं लगते
स्कूल के बाद अपना काम भी करना
चमक उठी उसकी आँखें
मुस्कुरा उठे उसके होंठ
मैंने थमा दिया उसे एक कलम
और वह मासूम उसे यूँ निहार रहा था
जैसे शिक्षा के हिंडोले पर सवार हो
जाएगा वह बादलों के पार
भर लाएगा तारों से भरी थैली
जब उसकी माँ देखेगी
तब सफल हो जाएगी
उसकी शैक्षिक उड़ान
वह भी तो बन जाएगा
समाज की पहचान
*ऋता शेखर मधु*
काश आपकी यह कल्पना सत्य हो हर बच्चे के लिये
जवाब देंहटाएंऔर सभी बच्चो तक सरकारी योजनाओ का लाभ पहुच पाये
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जीना सब को नहीं आता - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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