शनिवार, 11 जनवरी 2025

पाँच लघुकथाएँ - ऋता शेखर

1. असर कहाँ तक

"मीना अब बड़ी हो गई है। उच्च शिक्षा लेने के बाद नौकरी भी करने लगी है। कोई ढंग का लड़का मिल जाये तो उसके हाथ पीले कर दें !" चाय पीते हुए सरला ने पति से कहा।

     "हाँ, बेटी के पिता को दिल पर पत्थर तो रखना ही होता है। बेटी को खूब पढ़ाया-लिखाया और वह अब नौकरी भी करने लगी है। फिर भी, उसे विदा तो करना ही है।"

     "किसे विदा करना है पापा?" मीना जाने कब कमरे में आ गई थी।

     "तुम्हें विदा करना है, और किसे। उसी पर बातें हो रही है।" माँ  ने बेटी से कहा।

     "पर मुझे तो यहीं रहना है। मैं अपना घर-द्वार, सखी-सहेलियों को छोड़कर दूसरे घर क्यों जाऊँगी माँ। मेरी नौकरी है तो आर्थिक रूप से आपको किसी पर बोझ नहीं बनने दूँगी।"

      "यही समाज का नियम है। विवाह तो करना ही होता हैं।" माँ ने उसे समझाते हुए कहा।

      "मैं यह नियम मानने से इनकार करती हूँ। विवाह कर मैं किसी को मानसिक प्रताड़ना नहीं दे सकती। कोई भी विरोध अपने घर से आरम्भ होना चाहिए।" मीना के स्वर में दृढ़ता झलक रही थी।

      "कैसी प्रताड़ना देने की बात कर रही हो मीना?"

      "वही, जो आज तक आप पापा को देती आई हो।"

      "मैंने क्या किया है?" बेटी के इस आरोप से सरला घबरा गई।

      "आप हमेशा पापा पर अहसान जताती रही हो, कि विवाह कर, अपने सबों को छोड़कर आप यहाँ आईं। पापा उस समय खुद को अपराधी समझने लगते हैं। आपको भी तो पता था कि यह समाज का नियम है। घरवालों को नहीं छोड़ना था तो अपने ही घर रहना चाहिए था। माना कि पहले के समय आर्थिक मजबूरी रहती थी। लड़की विरोध नहीं कर सकती थी। अब तो ऐसी बात नहीं है।"

      "ये तू क्या बोले जा रही है मीना?"

      "सही तो कह रही हूँ माँ, विवाह एक सामाजिक बंधन है। विवाह के बाद घर छोड़ने के त्याग को बार-बार कहकर किसी को अपराध बोध से ग्रसित रखना भला क्यों? मुझे कोई जबरदस्ती तो अपने घर नहीं ले जा सकता। विरोध मेरा ही है कि मुझे कहीं नहीं जाना।"

      मामूली नोक-झौंक का बेटी पर इतना गहरा असर देख सरला स्तब्ध रह गई। पिता ने पुत्री को निहारा और पीठ पर स्नेह का हाथ रख दिया।


2. सुपर मॉम

"भैया, मम्मी को पहले भी जब थकान लगी थी, तो उस वक्त आपने दिखाया क्यों नहीं?"

     "मम्मी तो सुपर मॉम हैं। सब कुछ सम्भाल लेती हैं। कभी उन्हें थकते नहीं देखा। काम करते हुए थोड़ी बहुत थकान तो हो ही जाती है, इसमें कौन-सी बड़ी बात है। लेकिन तुझे कैसे पता कि मॉम को थकान लग रही थी।" भैया ने सफाई देते हुए कहा।

     "मैं परसों भी आई थी। अपने लिए कभी कुछ न कहने वाली मॉम ने हताश स्वर में कहा था--"बहुत थकान लग रही है। चलते हुए लगता है कि अभी गिर पड़ूँगी।" 

      "मैंने कहा था कि डॉक्टर के यहाँ चलते हैं। उन्होंने कहा--"नहीं, डॉक्टर की जरूरत नहीं, वैसे ही ठीक हो जाउँगी। पहले भी कई दफा ऐसा हुआ है, फिर अपने आप ठीक भी हो गई थी।"

      बहन ने एक कागज़ थमाते हुए भाई से कहा--"मैंने उसी दिन उनका ब्लड टेस्ट करवाया था। भैया, ये आपकी सुपर मॉम की ब्लड रिपोर्ट आई है।"

      "ओह ! विटामिन 'डी' और हीमोग्लोबिन, दोनों इतना कम।" रिपोर्ट भैया के हाथों में फड़फड़ा रही थी।

       "तुम दोनों बेकार ही परेशान हो रहे हो। मैं तुम दोनों के लिए कुछ बनाकर लाती हूँ।" माँ ने बात टालने के लिए कहा।

       "आप सुपर मॉम हो। मेटल मॉम नहीं।" कहते हुए भैया ने माँ को कुर्सी पर बैठा दिया और खुद रसोई में चले गए।

       "माँ, यह आपकी भी भूल थी कि खुद को न थकने वाली मशीन समझा। अब दवाएँ समय पर लेते रहें और स्वयं को स्वस्थ रखें। पढ़े लिखे होने का यह फायदा दिखना चाहिए।" बेटी और बेटा एक साथ चिर्रा पड़े। 

       बच्चों की झिड़की सुन, माँ को अपनी माँ की याद हो आई। शरीर में हड्डियों का घनत्व कम होने के कारण ऑस्टियोपोरोसिस का शिकार होकर वह दस वर्षों तक बिस्तर से उठ ही नहीं पाई थी। काश उस समय यही बात मैंने भी, अपनी माँ को कही होती?


3. छाया दान

एक-एक कर सारे गमले ठेले पर चढ़ाए जा रहे थे। आदित्य बाबू हर गमले की पत्तियों पर हाथ फिराते, फिर जाने देते। बड़े नावनुमा गमले में बरगद का बोनसाई था। जिसमें तीस वर्षों से उनकी पत्नी वट सावित्री पूजा करती आई थी। एक बार पानी की टँकी बेकार हो गयी तो उसमें मिट्टी भरकर आम का वृक्ष लगाया गया था, ताकि सत्यनारायण की पूजा में आम के पल्लव मिल सकें। वैसे ही दान के लिए आँवले का पेड़ और शिव पूजन के लिए बेल का पेड़ भी लगा हुआ था। तीन तल्ला घर में ऊपरी छत पर पूरा एक बगीचा सुशोभित था।

      अब गुलाब के गमले ठेले पर जाने लगे। सफेद, लाल, गुलाबी, काले, पीले गुलाब; सबका अपना-अपना महत्व और सबकी अपनी-अपनी सुंदरता थी।

      इसी तरह बोगनविलिया, जिनिया, लिली, चमेली, बेली, कनेर, अपराजिता, अड़हुल, मीठा नीम के पौधे भी घर से निकलने लगे। हर पौधे के साथ आदित्य बाबू की आँखों मे नमी बढ़ती ही जा रही थी।

       तभी, पड़ोसी अरुण बाबू ने उनका हाथ थाम लिया और बोले--"पूरा बगीचा किधर भेज रहे भाई। क्यों हटा रहे हो यह सब?"

      आदित्य बाबू बोले--"रिटायरमेंट के बाद, यह शहर छोड़कर जा रहा हूँ भाई। अब बच्चे जिस शहर में रहेंगे, वहीं हम भी रहेंगे। पेड-पौधों को सूखने के लिए नहीं छोड़ सकता।" आवाज में दर्द साफ झलक रहा था।

      "तो इन्हें पड़ोसियों में बाँट देते भाई।"

      "बात तो सही है अरुण बाबू, लेकिन किसी पर अवांछित बोझ नहीं डाल सकता। इसे नर्सरी वालों के हवाले कर रहा हूँ। वही इसकी कीमत समझेंगे। कोई वहाँ से पैसे देकर खरीदेगा तो वह भी कीमत जानेगा।"

      "कितने पैसे दे रहा है नर्सरी वाला?"

      "दान में दी जा रही वस्तु की कीमत नहीं ली जाती।"

       तभी, पास खड़ी अरुण बाबू की माँ बोल पड़ीं--"यह छाया दान है बेटा, पर्यावरण रक्षा के लिए इस दान का बहुत पुण्य मिलेगा तुम्हें ! इन्हें हम अपने घर ले जाते हैं। इनके सहारे तुम्हारा स्नेह भी हमें याद आता रहेगा।"

       आदित्य बाबू ने झुककर माता जी के पाँव छू लिए।


4.परछाई

जीवन के उतार-चढ़ाव समझने की कोशिश में वह थोड़ा परेशान रहने लगा था। एक दिन, प्रोफ़ेसर ने उससे कहा--"वह सूरज उगने के साथ ही उठे और सूरज की ओर मुँह करके बैठ जाए। उसके बाद उसकी जो परछाई बनेगी, वह दिन के पहर बीतने के साथ-साथ कैसे-कैसे बदलती है, उसे लिखता जाए और मुझे दिखाया करे।"

      आज उसने यही करने का फैसला किया। सूरज उगा, वह भी उठा और एक खुली जगह पर आसन जमा लिया। सुबह, दोपहर, शाम और रात की परछाई का सर्वेक्षण था। निर्देशानुसार मुँह हमेशा पूरब की ओर ही रखना था। रात को वह प्रोफेसर के घर पहुँचा। प्रोफेसर ने उसे सर्वेक्षण पढ़ने को कहा। उसने पढ़ना शुरू किया--"सुबह में, लम्बी सी परछाई मेरे पीछे थी। दोपहर को वह मेरे आस-पास सिमट आई थी। शाम को परछाई फिर से लम्बी हुई। लेकिन शाम के समय वह मेरे आगे की तरफ थी। रात में तो बिल्कुल ही गायब हो गई थी। हाँ, एक बार दिन में परछाई धूमिल भी हुई थी। यह तब हुआ, जब आसमान में बादल आये थे।"

      प्रोफेसर ने उससे कहा--"तो समझ लो कि सूर्य जीवन है और परछाई है, यह जमाना। मनुष्य जब जन्म लेता है तो अपनी ऊर्जा, अपनी सफलता से पूरे जमाने को अपने पीछे चला सकता है। सफलता की ऊँचाई पर सारा जमाना उसके इर्द-गिर्द सिमटा रहता है। जीवन की संध्या में उसे जमाने के पीछे चलना होता है, और फिर मिट जाना होता है। मनुष्य मात्र एक बिम्ब है, जो सफलता की परछाइयाँ बनाता हुआ, एक दिन मिट जाता है। बादलों के कारण परछाई धूमिल हो सकती है, पर कुछ देर के लिए ही।"

      उसने अपनी उम्र देखी। और परछाइयों को अपने इर्द-गिर्द समेटने के लिए निकल पड़ा।


5. बेटी बड़ी हो गई

"आज हमारी बिटिया अट्ठारह साल की हो गई। अब तुम अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकोगी। मैं मतदाता सूची में तुम्हारा नाम दर्ज करवा देता हूँ।" पुत्री के अट्ठारहवें जन्मदिवस पर पिता ने बिटिया को बधाई देते हुए कहा।

     "लेकिन पापा, मैं तो चार वर्ष पहले ही बड़ी हो गई थी।"

     "अच्छा ! ये आपको किसने बताया?"

      "चार वर्ष पहले ही दादी ने कहा था कि अब मै बड़ी हो गई हूँ, और मुझे लड़कों से दूर रहना है।"

      मातृ-विहीन बिटिया को उसके पिता शारीरिक रूप से बड़े हो जाने और बौद्धिक रूप से उम्र का फर्क, चाहकर भी समझा नहीं सके थे।

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ऋता शेखर 'मधु'