शराफ़त से सभी को जोड़ता है
किसी खुदग़र्ज से वो भी अड़ा है
न कोई बच सका है आइने से
जमाना हर किसी को तोलता है
नदी को बाँध लेते हैं किनारे
यही तहज़ीब की परिकल्पना है
बिखरती पत्तियाँ भी पतझरों में
दुखों के सिलसिले में क्या नया है
नजरअंदाज ना करना कभी भी
बड़ों में अनुभवों का मशवरा है
दिलों में है नहीं बाकी मुहब्बत
*कोई आहट न कोई बोलता है*
--ऋता शेखर 'मधु'
1222/ 1222/ 122
काफ़िया- आ
रदीफ़-है
काफ़िया- आ
रदीफ़-है
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.12.16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2557 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद