यात्रा के हैं अनगिन रूप
कभी छाँव मिले कभी धूप
प्रथम यात्रा परलोक से
इहलोक की
नौ महीने की विकट यात्रा
बन्द कूप में सिमटी हुई यात्रा
जग से जुड़ता जब नाता
भोर से सायं तक
पृथ्वी की यात्रा
गंगोत्री से खाड़ी तक
गंगा की यात्रा
बचपन से बुढ़ापा तक
देह की यात्रा
कभी पैदल यात्रा
कभी पटरी पर चलती
रेल की यात्रा
नभ में बादलों के बीच
यान की यात्रा
सागर में
डूबती उतराती यात्रा
कभी दैनिक यात्रा
या फिर साप्ताहिक
मासिक या वार्षिक
समय की पाबंदी पर
बस यात्रा ही यात्रा
क्योंकि करनी है
मुख से पेट तक
भोजन को यात्रा
हर यात्रा में करनी होती तैयारी
बस चूक हो जाती है
अंतिम यात्रा की तैयारी में
जाने कितना कुछ
छोड़ जाते हैं ऐसा
जिसे स्वयं ठिकाने लगाना था
पर अपनी देह को ठिकाने
कोई न लगा सकता
हर आत्मनिर्भर होकर भी
बेबस है
परावलम्बन होना ही है
फिर घमंड किस बात का
इस यात्रा का टिकट तो है
बस तिथि का नहीं पता।
कैसे किस विधि जाना है
रीति का पता नहीं
– ऋता शेखर मधु
जीवन का एक मात्र सत्य सत्य|
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !!
हटाएंइस यात्रा का टिकट तो है
जवाब देंहटाएंबस तिथि का नहीं पता।
सादर
धन्यवाद !!
हटाएंवाह! जीवन हर पल एक यात्रा ही तो है एक के बाद एक स्वरूप बस बदलता है और जीवन गंतव्य की और चलता जाता है।
जवाब देंहटाएंअद्भुत।
जीवन की सारी यात्रा चंद पंक्तियां में कह डाली...लाजवाब!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रूपा जी|
हटाएंवाह्ह ... मनुष्य का जीवन से मृत्यु तक की यात्रा के अनेक पड़ावों का साक्षी है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना।
सादर।
धन्याद श्वेता जी!
हटाएंबस यात्रा ही यात्रा ...
जवाब देंहटाएंजीवन भर की यात्राएं और फिर अंतिम यात्रा ...
जीवन का परम सत्य उजागर करती लाजवाब रचना ।
धन्यवाद सुधा जी !!
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