*' ऋषि मुनि और उनका आध्यात्म'*
इस विषय के अंतर्गत सर्वप्रथम हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि आध्यात्म क्या है और ऋषि, मुनि, संत एवं महर्षि में मूलभूत अंतर क्या है एवं मानव कल्याण में उनकी आध्यात्मिक भूमिका क्या है ?
ऋषि, मुनि, संत, महर्षि, ब्रह्मर्षि, और राजर्षि, ये सभी शब्द भारतीय संस्कृति और धर्म में विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक गुरुओं या ज्ञानियों को दर्शाते हैं। इनमें से प्रत्येक शब्द एक विशेष स्तर या प्रकार के आध्यात्मिक विकास को दर्शाता है।
*ऋषि:* ऋषि शब्द का अर्थ है "दृष्टा" या "जानने वाला"। प्राचीन काल में, ऋषि उन लोगों को कहा जाता था जिन्होंने वेदों की ऋचाओं (मंत्रों) की रचना की या उन्हें देखा। ऋषि ज्ञान और तपस्या के माध्यम से सत्य को जानने का प्रयास करते हैं।
*मुनि:* मुनि शब्द का अर्थ है "मनन करने वाला" या "शांत रहने वाला"। मुनि वे होते हैं जो अपनी इंद्रियों को वश में करके मन को शांत करते हैं और ज्ञान प्राप्त करने के लिए गहन चिंतन करते हैं। मुनि आमतौर पर एकांत में रहते हैं और तपस्या करते हैं।
*संत:* संत शब्द का अर्थ है "सत्य को जानने वाला" या "सत्यनिष्ठ व्यक्ति"। संत वे होते हैं जिन्होंने सत्य को जान लिया है और उसे अपने जीवन में उतार लिया है। संत आमतौर पर सांसारिक सुखों का त्याग कर देते हैं और दूसरों को सत्य का मार्ग दिखाते हैं।
*महर्षि:* महर्षि शब्द का अर्थ है "महान ऋषि"। महर्षि वे ऋषि होते हैं जिन्होंने ज्ञान और तपस्या के माध्यम से उच्च स्तर की आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त कर ली है। वे न केवल ज्ञानवान होते हैं, बल्कि वे दूसरों को ज्ञान देने और उनका मार्गदर्शन करने में भी सक्षम होते हैं।
*ब्रह्मर्षि:* ब्रह्मर्षि शब्द का अर्थ है "ब्रह्म को जानने वाला ऋषि"। ब्रह्मर्षि वे ऋषि होते हैं जिन्होंने ब्रह्म (सर्वोच्च वास्तविकता) को पूरी तरह से जान लिया है और उसमें लीन हो गए हैं। ब्रह्मर्षि को ऋषियों में सबसे महान माना जाता है।
*राजर्षि:* राजर्षि शब्द का अर्थ है "राजा होते हुए भी ऋषि"। राजर्षि वे राजा होते हैं जिन्होंने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया है और ऋषि का दर्जा प्राप्त किया है।
अध्यात्म को हमें वेद, पुराण, उपनिषद और ग्रन्थों के माध्यम से समझने का प्रयास करना होगा। यहाँ पर हम श्रीमद्भगवतगीता में वर्णित अध्यात्म की परिभाषा को सामने लाने एवं आत्मसात करने का प्रयत्न करते हैं।
भगवद गीता के अनुसार, अध्यात्म का अर्थ है अपने स्वयं के स्वरूप का, अपनी आत्मा का अध्ययन करना। यह व्यक्ति के भीतर की चेतना और प्रकृति के गुणों के बारे में है, और यह दर्शाता है कि कैसे मनुष्य अपने कर्मों और स्वभाव के माध्यम से विकसित होता है।
अध्यात्म का अर्थ है सांसारिक मोह-माया से परे होकर आत्मा के परम सत्य को प्राप्त करना।
अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन-धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है और ऋषियों, मुनियों के चिंतन का निचोड़ है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म। वैदिक काल से हमारा देश कृषि और पशुपालन युग में था। उस समय के निवासी कर्मठ, फक्कड़, प्रकृतिप्रेमी, सरल और इस जीवन को भरपूर जीने की लालसा वाले थे। उन्होंने कुछ प्राकृतिक शक्तियों जैसे मेघ, जल, अग्नि, वायु, सूर्य, उषा, संध्या आदि की पहचान की और इन्हें संचालित करने वाले काल्पनिक आकारों ,जैसे वरुण, इंद्र, रुद्र आदि को देवों के रूप में मान्यता दी। फिर इन्हें प्रसन्न रखने और इनके आक्रोश से उत्पन्न अनिष्ट से अपने जीवन, अपनी फसलों, अपने पशुओं को बचाने के लिए इनके निमित्त अनुष्ठान किए जाने लगे। ये अनुष्ठान फिर अपनी कामना-पूर्ति और बीमारियों, शत्रुओं पर विजय पाने के तंत्र के रूप में विकसित हो गए।
ऋषियों ने आध्यात्मिक ज्ञान को आकार देने, पवित्र ज्ञान को संरक्षित करने और व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध ऋषियों के दिव्य आध्यामिक जीवन व आध्यात्मिक योगदान पर चर्चा करते हैं।
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*1.महर्षि वेदव्यास* वेदों के विभाजक और महाकाव्यों के रचयिता हैं।
महर्षि वेदव्यास, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन व्यास के नाम से भी जाना जाता है, सनातन धर्म के आदिगुरु हैं। उनके नाम के साथ ‘व्यास’ शब्द एक उपाधि है, जो द्वापर युग में वेदों का विभाजन करने वाले प्रत्येक महापुरुष को मिलती थी।
इन्हें गुरुओं का भी गुरु माना जाता है, और गुरु पूर्णिमा इन्हीं को समर्पित है। पुराणों के अनुसार इन्होंने अट्ठावन बार वेदों का विभाजन किया।
इन्होंने महाभारत जैसे महाकाव्य और अठारह पुराणों की रचना की।
ये त्रिकालदर्शी थे।
युधिष्ठिर को ‘प्रतिस्मृति’ विद्या का ज्ञान दिया।
धर्म की क्षीण होती स्थिति को देखकर वेदों का व्यास किया।
*2 महर्षि वशिष्ठ:* ज्ञान, तेज और मर्यादा के प्रतीक हैं।
वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र और सप्तर्षियों में प्रमुख थे।
ऋग्वेद के सप्तम मंडल के वे मुख्य द्रष्टा माने जाते हैं।
वे श्रीराम के गुरु थे। राम के वनवास से लौटने के बाद, इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ था।
कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच हुए संघर्ष में, विश्वामित्र ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, पर वशिष्ठ के अद्वितीय तपोबल के आगे उन्हें हार माननी पड़ी। इसी घटना ने विश्वामित्र जी को ब्रह्मर्षि बनने की प्रेरणा दी।
इनसे संबंधित कई महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं जैसे ‘योग वशिष्ठ’ ज्ञान और वैराग्य का अनुपम ग्रंथ है।‘वशिष्ठ संहिता’ में उनके ज्ञान और शिक्षाओं का सार।
*3 विश्वामित्र* की क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि तक की यात्रा अद्भुत है।
विश्वामित्र का जन्म एक क्षत्रिय राजा के रूप में हुआ था। ऋषि वशिष्ठ से पराजित होने के बाद, उन्होंने ब्रह्मर्षि बनने का दृढ़ निश्चय किया। उनकी यह यात्रा दृढ़ इच्छाशक्ति, कठोर तपस्या और अटूट संकल्प का प्रतीक है जिससे वो सबसे शक्तिशाली ऋषि बन सके।
उन्होंने वर्षों तक कठोर तपस्या कर ब्रह्मा और शिव से सभी दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया।
अपनी साधना से उन्होंने इतना तेज अर्जित किया कि एक समानांतर सृष्टि की रचना तक आरंभ कर दी। बाद में ब्रह्मा जी द्वारा मान्यता प्राप्त कर वे ब्रह्मर्षि कहलाए।
हिंदू धर्म के सबसे पवित्र और शक्तिशाली गायत्री मंत्र के द्रष्टा, महर्षि विश्वामित्र को माना जाता है।
उनकी “मानसिक सृष्टि” शक्ति इतनी प्रबल थी कि वे केवल विचार से ही नई वस्तुओं का निर्माण कर सकते थे।
*4 महर्षि भृगु:* ज्योतिष, संजीवनी और त्रिदेव की सहनशीलता के परीक्षक थे।
महर्षि भृगु भगवान ब्रह्मा के मानसपुत्रों में से एक थे और सप्तर्षियों में उनका विशेष स्थान है।
उन्होंने ‘भृगु संहिता’ की रचना की, जो ज्योतिष शास्त्र का एक विशाल और प्राचीनतम ग्रंथ है।
महर्षि भृगु ने संजीवनी विद्या की खोज की थी, जिससे मृत प्राणी को पुनः जीवित किया जा सकता था।
उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और शिव की सहनशीलता की परीक्षा ली थी। भगवान विष्णु की अपार सहनशीलता को सिद्ध किया।
5 महर्षि अगस्त्य: ब्रह्मतेज और लोक कल्याण के प्रतीक थे।
महर्षि अगस्त्य वैदिक युग के महान सप्तर्षियों में से एक थे और वशिष्ठ मुनि के ज्येष्ठ भ्राता थे। ब्रह्मतेज से परिपूर्ण अगस्त्य मुनि, देवताओं के अनुरोध पर उत्तर भारत से दक्षिण की ओर गए और वहीं निवास करने लगे।
वे अभूतपूर्व दैत्य संहारक थे। महर्षि अगस्त्य ने अपनी मंत्र शक्ति से संपूर्ण समुद्र को पी कर दुष्ट राक्षसों का विनाश किया था। उन्होंने इल्वल और वातापि नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा किए जा रहे ऋषि-संहार को भी अपनी शक्ति से रोका।
एक बार विंध्याचल पर्वत ने अपनी ऊंचाई बढ़ाकर सूर्य का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। सूर्यदेव की प्रार्थना पर, महर्षि अगस्त्य ने विंध्य पर्वत को स्थिर करते हुए कहा, “जब तक मैं दक्षिण से न लौटूँ, तुम ऐसे ही निम्न बने रहो।” चूंकि अगस्त्य जी वापस नहीं लौटे, विंध्याचल उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और सूर्य का मार्ग सदा के लिए प्रशस्त हो गया।
*6 महर्षि भारद्वाज* ऋग्वेद के द्रष्टा, विज्ञानवेत्ता और ज्ञान के भंडार थे।
उन्हें ऋग्वेद के छठे मण्डल का द्रष्टा माना जाता है, जिसमें उनके 765 मंत्र संग्रहित हैं। अथर्ववेद में भी उनके 23 मंत्र मिलते हैं।
महाभारत के अनुसार, उन्होंने ‘धनुर्वेद’ पर प्रवचन दिया।
उन्हें ‘राजशास्त्र’ का भी प्रणेता माना जाता है।
उन्होंने ‘यन्त्र-सर्वस्व’ नामक एक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी, जो प्राचीन भारतीय इंजीनियरिंग का एक अद्भुत प्रमाण है।
इंद्र ने भारद्वाज को सावित्र्य-अग्नि-विद्या का विधिवत ज्ञान कराया, जिससे उन्होंने अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्गलोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया।
यह शक्तिशाली ऋषि आयुर्वेद के प्रयोगों में परम निपुण थे, जो उनके लोक कल्याणकारी स्वभाव को दर्शाता है।
*7 महर्षि कश्यप* सृष्टि के प्रजापति और विज्ञान-अध्यात्म के संयोजक थे।
उनकी कुल सत्रह पत्नियाँ थीं, जिनमें दक्ष प्रजापति की तेरह पुत्रियाँ प्रमुख थीं। इन्हीं पत्नियों से देवों, असुरों, नागों और अनेक अन्य प्राणियों का जन्म हुआ, जिससे उन्हें सृष्टि के प्रजापति के रूप में जाना जाता है।
भगवान विष्णु ने अपना पाँचवाँ अवतार, वामन अवतार, ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी आदिति के पुत्र के रूप में लिया था।
उन्होंने ‘कश्यप संहिता’ की रचना की, जिसमें आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान समाहित है। इसके अतिरिक्त, वे ‘शिल्प शास्त्र’ के भी रचयिता थे।
*8 अत्रि ऋषि* का जन्म ब्रह्माजी के नेत्रों से हुआ था, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र माना जाता है।
अत्रि ऋषि ने कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था। अत्रि ऋषि और अनुसूया ने पुत्र प्राप्ति के लिए ऋक्ष पर्वत पर कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर त्रिदेवों ने उनके पुत्र के रूप में अवतार लिया। विष्णु के अंश से दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, और शिव के अंश से दुर्वासा ऋषि का जन्म हुआ।
अत्रि ऋषि को त्याग, तपस्या और संतोष का प्रतीक माना जाता है। अश्विनीकुमारों की उन पर विशेष कृपा थी।अत्रि ऋषि ने देश में कृषि के विकास में भी योगदान दिया। कहा जाता है कि अत्रि ऋषि ने अंजुली में जल भरकर सागर को सोख लिया था, जिसके बाद सागर ने उनसे याचना की कि उसे जलविहीन न करें।
*9 महर्षि पराशर:* उन्होंने अपने तपोबल से यमुना नदी की धारा को परिवर्तित कर दिया और उनके मंत्रों की शक्ति से कालकेय राक्षसों का संहार हुआ।
वे महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास के पिता थे।
उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के मूल ग्रंथ ‘बृहत् पराशर होरा शास्त्र’ की रचना कर ग्रह-नक्षत्रों के गूढ़ रहस्यों को उजागर किया। यह ग्रंथ वैदिक ज्योतिष का आधार स्तंभ है।
उन्होंने ‘पराशर स्मृति’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की भी रचना की, जिससे वेदों के गूढ़ रहस्यों को जनसामान्य तक पहुँचाया जा सके।
*10 गौतम ऋषि* का उल्लेख, त्रेता युग एवं द्वापर युग में मिलता है।वे राहुगण नामक ऋषि के पुत्र थे, इसलिए उन्हें गौतम राहुगण के नाम से जाना जाता है।।
वे ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा थे।उन्हें मंत्रों का आविष्कारक माना जाता है। ऋग्वेद में उनके नाम से कई सूक्त मिलते हैं, जो उनके महत्व को दर्शाते हैं।
उनके दो पुत्र ,वामदेव और नोधा, भी मंत्रों के ज्ञाता थे। शतपथ ब्राह्मण में भी गौतम ऋषि का उल्लेख मिलता है, जहां उन्हें पुरोहित के रूप में दर्शाया गया है।
गौतम राहुगण ने अग्नि अर्थात दिव्य इच्छा की स्तुति में एक स्तोत्र की रचना की, जो शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है।
*11:ऋषि जमदग्नि:*
जमदग्नि ऋषि, भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र थे। जिन्होंने गोवंश की रक्षा के लिए ऋग्वेद के 16 मंत्रों की रचना की।
*12 महर्षि कपिल:* सांख्य दर्शन के प्रणेता थे जो भारतीय दर्शन के छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों में से एक है। उन्होंने अपनी माता देवहुति को वैराग्य और मोक्ष का उपदेश दिया, जो ‘कपिल गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है।
*13 कात्यायन ऋषि*
कात्यायन ऋषि एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय ऋषि थे, जो वैदिक काल के अंतिम महान गणितज्ञों में से एक माने जाते हैं। वे एक व्याकरणविद, वैदिक पुरोहित और ऋषि भी थे। उन्होंने श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी कात्यायनी, जिन्हें नवदुर्गा में से एक माना जाता है, ऋषि कात्यायन की पुत्री थीं।
*14 कण्व ऋषि*
ऋग्वेद के आठवें मंडल के अधिकांश मंत्रों को कण्व ऋषि और उनके वंशजों द्वारा रचित माना जाता है.
कण्व ऋषि ने एक स्मृति धर्मशास्त्र की भी रचना की है, जिसे 'कण्वस्मृति' के नाम से जाना जाता है. 15 नारद मुनि, हिंदू पौराणिक कथाओं के एक प्रसिद्ध ऋषि और भगवान विष्णु के भक्त हैं। उन्हें देवर्षि भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है देवताओं का ऋषि। नारद मुनि को तीनों लोकों ; स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल में विचरण करने वाला माना जाता है और उन्हें "सृष्टि के पहले पत्रकार" के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि वे विभिन्न लोकों की खबरें एक-दूसरे तक पहुंचाते थे. नारद मुनि को ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माना जाता है.
वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे, जिनमें नारद पुराण, नारद भक्ति सूत्र, और पांचरात्र हैं।
इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म में आकाशगंगा में अवस्थित सात तारों के समूह को सप्तऋषि मंडल के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक तारा को एक ऋषि का नाम दिया गया है। इनकी नामावली हर काल में बदली गयी है। अभी तक चार नामावली ज्ञात है जिसकी चर्चा करेंगे।सभी सूचियों को मिलाकर जितने भी ऋषि हैं उनमें कुछ के आध्यात्मिक योगदान की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। बाकी बचे ऋषियों पर आगे चर्चा करेंगे।
सप्तऋषि
ऋषियों की संख्या 7 ही क्यों?
धार्मिक शास्त्रों में इसके बारे में बकायदा वर्णन किया गया है। तो आइए जानते हैं शास्त्रों में शामिल इससे संबंधित श्लोक व उसका अर्थ-
श्लोक-
सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।
कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:।।
अर्थात: 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं।
सनातन धर्म के ग्रंथों व पुराणों में काल को मन्वंतरों में विभाजित कर प्रत्येक मन्वंतर में हुए ऋषियों के ज्ञान और उनके योगदान को परिभाषित किया है। इसके अनुसार प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं।
सप्तर्षि (सप्त + ऋषि) सात ऋषियों को कहते हैं जिनका उल्लेख वेद एवं अन्य हिन्दू ग्रन्थों में अनेकों बार हुआ है।
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:-
1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव 7.शौनक।
इनमें ऋषि वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज एवं अत्रि की चर्चा ऊपर की जा चुकी है।
अब ऋषि वामदेव और ऋषि शौनक के बारे में जानते हैं।
*ऋषि वामदेव:*
वे ऋग्वेद के चौथे मंडल के द्रष्टा ऋषि थे, जिसमें अग्नि, इंद्र, वरुण, सोम और आदित्य जैसे देवताओं की स्तुति में रचित मंत्र हैं.
वे महर्षि गौतम के पुत्र थे।
उन्हें 'जन्मत्रयी' का अर्थात अपने पिछले तीन जन्मों का ज्ञान था.
वामदेव शिव के भक्त थे और शरीर पर भस्म धारण करते थे.
वामदेव का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है, जहां वे राजा वसुमना को उपदेश देते हैं.
*ऋषि शौनक*
पुराणों के अनुसार ऋषि शौनक एक वैदिक आचार्य थे, जो भृगुवंशी शुनक ऋषि के पुत्र थे। इनका पूरा नाम इंद्रोतदैवाय शौनक था।
बताया जाता है कि ऋषि शौनक ने कुल 10 हज़ार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलापित का विलक्षण सम्मान हासिल किया था।
इन्हें शौन राजा के नाम से भी जानते हैं।
इन्होंने महाभारत काल में राजा जनमेजय का अश्वमेध और सर्पसत्र नामक यज्ञ संपन्न करवाया था।
ऋषि शौनक ने ऋक्प्रातिशाख्य, ऋग्वेद छंदानुक्रमणी, ऋग्वेद ऋष्यानुक्रमणी, ऋग्वेद अनुवाकानुक्रमणी, ऋग्वेद सूक्तानुक्रमणी, ऋग्वेद कथानुक्रमणी, ऋग्वेद पादविधान, बृहदेवता, शौनक स्मृति, चरणव्यूह, ऋग्विधान आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने ही शौनक गृह्सूत्र, शौनक गृह्यपरिशिष्ट, वास्तुशा्सत्र ग्रंथ की रचना भी की थी।
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण के अनुसार सातवें मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-
वशिष्ठकाश्यपोऽत्रिर्जमदग्निस्सगौतमः।
विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।
अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज। इनमें सभी ऋषियों की चर्चा की जा चुकी है।
इसके अलावा अन्य पुराणों के अनुसार सप्तऋषि की नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वसिष्ठ और मरीचि है।
इस भाग में ऋषि क्रतु, पुलह, पुलस्त्य और मरीचि की चर्चा करेंगे।
ऋषि क्रतु
ऋषि क्रतु को भगवान ब्रह्मा के मस्तिष्क से उत्पन्न माना जाता है।
उन्हें सप्तर्षियो में से एक माना जाता है, जो मनु के युग में महत्वपूर्ण थे।
क्रतु सोलह प्रजापतियों में से एक भी हैं, जो सृष्टि के आरंभ में देवताओं और मनुष्यों के पूर्वज माने जाते हैं।
क्रतु को वेदों का विभाजन करने का श्रेय दिया जाता है।
बालखिल्य ऋषि थे।
क्रतु के 60,000 पुत्र थे, जिन्हें बालखिल्य कहा जाता था, वे अंगूठे के आकार के थे और सूर्यदेव की पूजा करते थे।
क्रतु ऋषि को ध्रुव की प्रदक्षिणा में लीन रहने के लिए भी जाना जाता है, जो निरंतर योग और ध्यान का अभ्यास करते थे।
उन्हें भार्गवों में से एक माना जाता है.
ऋषि पुलह
पुलह ऋषि, ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक माने जाते हैं और सप्तर्षि में भी गिने जाते हैं।पुलह ऋषि को प्रजापति भी कहा जाता है, और उन्हें सृष्टि के रचनाकारों में से एक माना जाता है।
पुलह ऋषि को भगवान ब्रह्मा का मानसिक पुत्र माना जाता है, जो उनकी इच्छा से उत्पन्न हुए थे।
महर्षि पुलह ने महर्षि सनंदन को गुरु स्वीकार किया। उनसे शिक्षा दीक्षा ग्रहण की। संप्रदाय की रक्षा की ज़िम्मेदारी ली। आश्रम में रह कर तत्वज्ञान का संपादन किया। बाद में महर्षि गौतम ने इन्हें गुरु बनाया। उन्होंने गौतम को अपने ज्ञान का भंडार दिया। गौतम ने भी पुलह ऋषि से प्राप्त ज्ञान का विस्तार किया।
पुलह ऋषि भगवान शिव के भक्त थे और उन्होंने काशी में पुलहेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की थी।
पुलह ऋषि ने जगत को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक शांति प्रदान करने का कार्य किया।
महाभारत के अनुसार, किम्पुरुषों की जाति पुलह ऋषि की संतान है।
ऋषि पुलस्त्य
ऋषि पुलस्त्य, ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक थे। वे सप्तर्षि में से एक थे।
ऋषि पुलस्त्य को ब्रह्मा से विष्णु पुराण प्राप्त हुआ था, जिसे उन्होंने पराशर को सुनाया, जिन्होंने इसे मानव जाति के लिए जाना।
ऋषि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा थे, जिनके पुत्र रावण और कुबेर थे।
कुछ मान्यताओं के अनुसार, ऋषि पुलस्त्य का विवाह कर्दम प्रजापति की पुत्री हविर्भू से हुआ था, और वे कनखल के राजा दक्ष के दामाद भी थे।
एक कथा के अनुसार, ऋषि पुलस्त्य ने मेरु पर्वत पर तपस्या करते समय, अप्सराओं को परेशान करने पर उन्हें श्राप दिया था कि जो भी महिला उनके सामने आएगी, वह गर्भवती हो जाएगी।
ऋषि पुलस्त्य ने अपने पोते रावण को सहस्त्रार्जुन से मुक्त कराया था।
ऋषि अंगिरा
अंगिरा ऋषि, जिन्हें वेदों के रचनाकारों में से एक माना जाता है, ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। उन्होंने अग्नि को सबसे पहले उत्पन्न किया और धर्म तथा राज्य व्यवस्था पर महत्वपूर्ण कार्य किया। अंगिरा स्मृति की रचना भी उन्होंने की, जिसमें उपदेश और धर्माचरण की शिक्षा दी गई है।
अंगिरा ऋषि को वेदों में अग्नि के पहले ज्ञाता के रूप में जाना जाता है।
उन्होंने धर्म और राज्य व्यवस्था पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहे।
उन्होंने अपने नाम से अंगिरा स्मृति की रचना की, जो धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं का संग्रह है।
अंगिरा ऋषि की तपस्या इतनी महान थी कि उनका तेज अग्निदेव से भी अधिक था।
उनके पुत्र बृहस्पति, जो देवताओं के गुरु बने, भी बहुत प्रसिद्ध हुए।
ऋषि मरीचि
महर्षि मरीचि परमपिता ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्रों में से एक हैं जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से हुई मानी जाती है, जिसके कारण उनका नाम 'मरिचि' पड़ा।
इनका निवास स्थान मेरु पर्वत के शिखर पर बताया गया है। मरीचि सहित अन्य सप्तर्षियों की गिनती १० प्रजापतियों में भी की जाती है। अन्य तीन प्रजापति हैं - नारद, भृगु और प्रचेता। इनकी महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं - 'हे पार्थ! आदित्यों में मैं विष्णु हूँ, तेज में मैं सूर्य हूँ, मरुतों में मैं मरीचि हूँ और नक्षत्रों में मैं चंद्र हूँ।' यही कारण है कि इन्हे प्रजापतियों में श्रेष्ठ समझा जाता है। महाभारत में इन्हे 'चित्रशिखण्डी' कहा गया है।
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।
एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली के अनुसार सप्तर्षि - कश्यप, वशिष्ठ, मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु हैं।
इस प्रकार भारतवर्ष में ऋषि मुनि अध्यात्म के प्रणेता माने जाते हैं।ऋषि वशिष्ठ हर मन्वंतर में निर्विवाद रूप से सप्तऋषियों में एक माने गए हैं। जनमानस के मानसिक विकास एवं शांति में अध्यात्म का बहुत महत्व है।
ऋता शेखर 'मधु'
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