होते हैं दिखते नहीं, होते कई हजार।
मन के भीतर के बने, तोरण वाले द्वार।।
तोरण वाले द्वार,सहज होकर खुल जाते।
मन के जो शालीन, मार्गदर्शक बन आते।
कहे ऋता यह बात, व्यंग्य से रिश्ते खोते।
हवा गर्म या सर्द, नहीं दिखते पर होते।।
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नारंगी शुभता रचे, श्वेत दलों के साथ।
धरती पर गिरकर चढ़ें, शंकर जी के माथ।।
शंकर जी के माथ, निखर कर ये इतराते।
लिए समर्पण भाव, गौरवान्वित हो जाते।
मधुर धुनों के बीच, छाप छोड़े सारंगी।
पारिजात के मध्य, रचे शुभता नारंगी।।
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रातें ज्यों सूनी हुईं, पसर गयी है याद।
पल पल युग युग सा लगे, नीरव हैं संवाद।।
नीरव हैं संवाद, हृदय दूर कहीं भटके।
चिंतन की भरमार, लगाते सौ सौ झटके।
ऋता बघारे ज्ञान, मधुर हैं उसकी बातें।
विचरण करते छंद, हुईं सूनी ज्यों रातें।।
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धरती की है सम्पदा, हरे हरे ये पेड़
रे मनुज! निज स्वार्थवश, तू मत इनको छेड़।।
तू मत इनको छेड़, रूठ जाएगी छाया।
सूखेंगे जब खेत, चली जाएगी माया।
छींट ऋता कुछ बीज, जहाँ धरती है परती।
बढ़े मनुज की कीर्ति, हरी हो ज्यों ज्यों धरती।।
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बालक हो या बालिका, दोनों हैं अभिमान।
एकरूप शिक्षा मिले, इतना रखिए ध्यान।।
इतना रखिए ध्यान, पुष्ट हो जाएं तन से।
नज़रों से सम्मान, शिष्टता छलके मन से।
ऋता कहे यह बात, वही है अच्छा पालक।
सदा रखे समभाव, बालिका या हो बालक।।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-11-2018) को "छठ माँ का उद्घोष" (चर्चा अंक-3154) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'