क़ातिल हूँ मैं
हाँ, क़त्ल करती हूँ
हर दिन क़त्ल करती हूँ
कुछ मासूम नन्हें ख्वाब का
कभी रुई के फाहे जैसे
सफ़ेद निश्छल स्वप्न का
मिटा देती हूँ
अनुभव के कठोर धरातल
पर उपज आए
आशाओ के इन्द्रधनुष को
हाँ दे देती हूँ विष
छोटी छोटी चाहतो को
चला देती हूँ खंजर
बड़े अरमानों पर
।
क़ि वजह क्या बताऊँ
कैसे बताऊँ
कि जन्मदाता के हाथों में
पंख कतरने वाली कैँची थी
कि हमकदम ने
हर कदम पर निगाह रखी
कि जिसे जनम दिया
अशक्त अरमानों की दवा
उसके हाथोँ में है
।
किसे कठघड़े में खड़ा करूँ
या कहाँ आत्मसमर्पण करूँ
ओ वामाओं', तुम भी सोचना
कहीँ तुम भी क़ातिल तो नहीं
।
सपनों की मज़ारों पर खिलती बहारेँ
हम भी ख़ुशी से उनको निहारें
एक दीप हर रोज़ रखते है जलाकर
घृत न सही डाल देते हैं अश्क
और जलता है दीप अनवरत...
रौशनी की खातिर मिसाल बनकर
*ऋता शेखर 'मधु'*
वाह !!! सच है कहीं न कहीं सभी यही तो करते हैं।
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