अपनी ही तपन
वह झेल न पाता
साँझ ढले
सागर की गोद में
धीरे से समाता
नहा धो कर
नई ताजगी के साथ
वह चाँद बन निकल आता
चाँदनी का दामन थाम
शुभ्र उज्जवल प्रभास से
जग को
शीतल मुस्कान दे जाता
हाँ, साँझ ढलते ही
वह प्रेमी
प्रेमिका का
उपमान बन
बच्चों का मामा बन जाता
तब वह रौद्र सूरज
अपने दिल की मासूमियत
माँ की लोरी में डाल
कितना भोला कितना प्यारा
कितना निश्छल कितना न्यारा
चन्द्रकिरन बन जाता|
हाँ, हमेशा कोई जल नहीं सकता
प्रचंड रूप में पल नहीं सकता
सूरज को चाँद बनना ही है
यही परिवर्तन है
यही सत्य है
यही शाश्वत है
...ऋता शेखर ‘मधु’
यही सत्य है !
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