बताओ तो
पगडंडी के किनारे नन्हीं हरी दूर्वा और बेल का एक पेड़ आपस में बातें कर रहे थे|
''तुम्हें कितनी निर्दयता से रौंद रौंद कर ये मनुष्य रास्ते बना लेते हैं'', बेल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा|
''गाँव से निकलने का रास्ता भी तो यही है भाई,'' अपने दर्द को अन्तस में छुपाती हुई दूर्वा बोल उठी,''तुम तो बड़े हो, तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता|''
''हाँ, यह तो है| मनुष्य को जब छाया चाहिए तो मेरे पास ही आते हैं,'' कुछ दर्प भी झलक रहा था बेल की बातों में,'' देखो, मेरे फल भी मीठे हैं| मेरी पत्तियाँ शिव का श्रृंगार करती हैं|''
''मैं अपनी सहेली ओस के साथ खेलती हूँ | मुझपर चलकर लोग तलवों में ठंढक पाते हैं और आँखों की रोशनी भी बढ़ाते है,'' कुछ सोचते हुए दूर्वा बोली,''मैं भी तो गणपति को प्रिय हूँ|''
''आज के जमाने में सजा देना भी आना चाहिए, नहीं तो हमेशा रौंदी जाती रहोगी|''
''नहीं भाई, नम्रता से बड़ी कोई चीज नहीं| मगर तुम सजा कैसे दे सकते हो|''
''वो देखो, उधर से दो मनुष्य आ रहे हैं| अब देखना क्या करता हूँ|''
दूर्वा साँस रोककर देखने लगी| ज्योंहि वे पेड़ के नीचे से गुजरने लगे , पेड़ ने एक बेल उसके सिर पर टपका दिया|
''आह" कहता हुआ वह मनुष्य अपने साथी से बोला, ''यह पेड़ तो बड़ा खतरनाक है| इसे काटना पड़ेगा वरना आगे भी कष्ट देता रहेगा|''
दूर्वा को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा| वह उदास स्वर में बोली,'' तुम्हारी छाया और मीठे फल को ये स्वार्थी मनुष्य भूल गए|''
''नहीं बहन, आघात सौ गुणो को एक झटके में खत्म कर देता है| नम्रता हर हाल में अच्छी होती है| मैं तो कट जाऊँगा पर तुम सदा नम्र रहना|''
''भाई बताओ तो, क्या खुद को हमेशा पाँव तले रखना ही नम्रता कहलाती है?''
''मैं नहीं जानता| वह देखो, वे आरियाँ लेकर आ रहे हैं| अलविदा बहन''
-ऋता शेखर 'मधु'
पगडंडी के किनारे नन्हीं हरी दूर्वा और बेल का एक पेड़ आपस में बातें कर रहे थे|
''तुम्हें कितनी निर्दयता से रौंद रौंद कर ये मनुष्य रास्ते बना लेते हैं'', बेल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा|
''गाँव से निकलने का रास्ता भी तो यही है भाई,'' अपने दर्द को अन्तस में छुपाती हुई दूर्वा बोल उठी,''तुम तो बड़े हो, तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता|''
''हाँ, यह तो है| मनुष्य को जब छाया चाहिए तो मेरे पास ही आते हैं,'' कुछ दर्प भी झलक रहा था बेल की बातों में,'' देखो, मेरे फल भी मीठे हैं| मेरी पत्तियाँ शिव का श्रृंगार करती हैं|''
''मैं अपनी सहेली ओस के साथ खेलती हूँ | मुझपर चलकर लोग तलवों में ठंढक पाते हैं और आँखों की रोशनी भी बढ़ाते है,'' कुछ सोचते हुए दूर्वा बोली,''मैं भी तो गणपति को प्रिय हूँ|''
''आज के जमाने में सजा देना भी आना चाहिए, नहीं तो हमेशा रौंदी जाती रहोगी|''
''नहीं भाई, नम्रता से बड़ी कोई चीज नहीं| मगर तुम सजा कैसे दे सकते हो|''
''वो देखो, उधर से दो मनुष्य आ रहे हैं| अब देखना क्या करता हूँ|''
दूर्वा साँस रोककर देखने लगी| ज्योंहि वे पेड़ के नीचे से गुजरने लगे , पेड़ ने एक बेल उसके सिर पर टपका दिया|
''आह" कहता हुआ वह मनुष्य अपने साथी से बोला, ''यह पेड़ तो बड़ा खतरनाक है| इसे काटना पड़ेगा वरना आगे भी कष्ट देता रहेगा|''
दूर्वा को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा| वह उदास स्वर में बोली,'' तुम्हारी छाया और मीठे फल को ये स्वार्थी मनुष्य भूल गए|''
''नहीं बहन, आघात सौ गुणो को एक झटके में खत्म कर देता है| नम्रता हर हाल में अच्छी होती है| मैं तो कट जाऊँगा पर तुम सदा नम्र रहना|''
''भाई बताओ तो, क्या खुद को हमेशा पाँव तले रखना ही नम्रता कहलाती है?''
''मैं नहीं जानता| वह देखो, वे आरियाँ लेकर आ रहे हैं| अलविदा बहन''
-ऋता शेखर 'मधु'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-09-2017) को
जवाब देंहटाएं"चलना कभी न वक्र" (चर्चा अंक 2730)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’नवरात्र का पावन पर्व और ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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