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धरती ब्याह रचाती है
पीले पीले अमलतास से
हल्दी रस्म निभाती है
धानी चुनरी में टांक सितारे
गुलमोहर बन जाती है
देखो, धरती ब्याह रचाती है।
आसमान के चाँद सितारे
उसके भाई बन्धु हैं
लहराते आँचल पर निर्मल
बहता जाता सिंधु है
ओढ़ चुनरिया इंद्रधनुष की
देखो, धरती ब्याह रचाती है।
बने पुजारी सप्तऋषि
ऋचाएँ वेद सुनाती हैं
नन्दन कानन में वृक्ष लताएं
झूम झूम लहराती हैं
छुईमुई बन कर सिमटी हुई
देखो, धरती ब्याह रचाती है।
इंसानों ने छीन लिया है
उसकी ठंडी छाया को
खेतों में वह ढूँढ रही
स्वर्ण फसल की काया को
वहाँ खड़े भवनों में धरती
कैसे ब्याह रचाएगी ।
मखमली गलीचे दूर्वा के
धूमिल पड़े सड़कों के नीचे
पवन बसन्ती धुआँ धुआँ है
कलियाँ सूखीं अँखियाँ मीचे
वन्दनवार फिर कहाँ बनेंगे
सुमन-हार कहाँ से लाएगी
इंसानों!
लौटा दो सुषमा उसकी
पृथ्वी को स्वर्ग बनाने दो
हम सब नाचेंगे बन बाराती
धरती को ब्याह रचाने दो।
--ऋता
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/04/2019 की बुलेटिन, " 23 अप्रैल - विश्व पुस्तक दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर