चित्र गूगल से साभार |
राह को स्वेद से सींचता हुआ
रिक्शे को दम से खींचता हुआ
बाहों पर उभरी नसें लिये
वह कृशकाय, वृद्धावस्था में
रिक्शे को लिए जा रहा है
आसमान में धूप चढ़ी है
सवारी को तिरपाल से बचाता
अपना सिर गमछ से बचा रहा
हाँ, वह रिक्शा चला रहा
सवारी को बुला रहा
धमनी में बहते हुए रक्त
कभी होने लगते निःशक्त
बैठे बैठे लग जाती है झपकी
तभी काँधे पर पड़ती थपकी
“ऐ उठो, पहुँचा दो चौक पर”
सजग होता अधमुंदी आखों से
चल पड़ता है पैडल घुमाता
नसें तड़तड़ाती हैं
वह रुकता नहीं
हताश तब होता है जब
सवारी चंद सिक्कों से भी
कुछ बचा लेना चाहती है
लड़ पड़ती है उस गरीब से
तब दिख जाती है
अमानवीयता करीब से
सड़कें सूनी हैं लॉकडाउन में
अब कोई नहीं उठाता उसे
कोई पैसों की झिकझिक नहीं करता
एक टक देखता बैठा है
गाहे बेगाहे दिख जाने वालों को
पर कोई नहीं आ रहा उस ओर
वह दिहाड़ी कमाने वाला
रिक्शे पर बैठा है
सूनी निगाहें लिये
बच्चों की भूखी बाहें लिए|
@ऋता शेखर ‘मधु’
आज चारों तरफ अचानक ही उभर आए ये हालात सच में ही इंसानियत से ये सवाल कर रहे हैं | सच को उकेरती हुई सारी पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंमार्मिक अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिवेश में रची गयी मार्मिक रचना।
जवाब देंहटाएंआह ! यथार्थपरक कविता
जवाब देंहटाएंमार्मिक ... रिक्शावाले की यंत्रणा को लिखा है... मेहनतकश इनसान आज कितना मजबूर है ... सटीक रचना है ...
जवाब देंहटाएंयथार्थपरक रचना.... आज का कटु सत्य
जवाब देंहटाएंसटिक और मार्मिक चित्रण
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (29-05-2020) को
"घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं" (चर्चा अंक-3716) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
आ० अजय कुमार जी, विश्वमोहन जी, शास्त्री सर, दिगंबर जी,राजा कुमारेंद्र जी, वंदना जी, सरिता जी जी, मीना जी...आप सभी का स्वागत व उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी!
हटाएंमार्मिक कविता
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंधमनी में बहते हुए रक्त
कभी होने लगते निःशक्त
बैठे बैठे लग जाती है झपकी
तभी काँधे पर पड़ती थपकी
“ऐ उठो, पहुँचा दो चौक पर”
सजग होता अधमुंदी आखों से
चल पड़ता है पैडल घुमाता
नसें तड़तड़ाती हैं
वह रुकता नहीं
हताश तब होता है जब
सवारी चंद सिक्कों से भी
कुछ बचा लेना चाहती है
लड़ पड़ती है उस गरीब से
तब दिख जाती है
अमानवीयता करीब से...मार्मिक सृजन... अमर अमानवीयता चहरे बहुतेरे कब कौन कौनसा चेहरा दिखादे पता नहीं चलता. लाजवाब सृजन.
धन्यवाद अनीता जी !
हटाएंसवारी को तिरपाल से बचाता
जवाब देंहटाएंअपना सिर गमछा से बचा रहा
हाँ, वह रिक्शा चला रहा
सवारी को बुला रहा... ऋता शेखर जी, अमानवीयता के बीच मानवीय होने की अनुभुति किसी रिक्शेवाले को देखकर ही हो सकती है
धन्यवाद अलकनंदा जी !
हटाएंसार्थक रचना, एक हृदयी स्पर्श रचना के लिए धन्यवाद .... 💐💐💐
जवाब देंहटाएंएक नई सोच जी...धन्यवाद !!
हटाएंआपकी कहानी सुपर पावर लॉकेट पढ़ी|
बहुत अच्छी कहानी है| कहानी के साथ कहानीकार का नाम भी रहे तो बाल साहोत्यकार के रूप में सबकी जानकारी रहे|