क्षणिकाएँ
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१.आँधियाँ चलीं
दो पँखुरी गुलाब की
बिखर गईं टूटकर
मन पूरे गुलाब की जगह
उन पँखुरियों पर
अटका रहा|
2
रेगिस्तान में
आँधियों ने मस्ती की
रेत से भर गई थीं आँखें
आँखों पर
होने चाहिये थे
चश्मे
3
हवा स्थिर थी
जब रौशन किया था
एक दीया
मचल गई ईर्ष्यालु आँधी
और
लौ को हाथों की ओट
दे दिया हमने
--ऋता
बेहतरीन भाव संजोये उत्कृष्ट श्रेणी की क्षणिकाएं। आनन्द की इस अनुभूति को व्यक्त करना संभव नहीं। मन उसी गुलाब की टूटी पंखुड़ियों पर अटक कर रह गया है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया। ॠता जी।।।
वाह
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 25 नवंबर नवंबर नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया यशोदा जी !!
हटाएंसभी क्षणिकाएँ बहुत सुन्दर हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर क्षणिकाएँ. साथ में चित्र हाइगा की याद दिला रहे हैं. बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंवाह!सुंदर क्षणिकाएं 👌
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 27-11-2020) को "लहरों के साथ रहे कोई ।" (चर्चा अंक- 3898) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
…
"मीना भारद्वाज"
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी मंज़ूरी के बाद दिखने लगेगी ????????? :(
जवाब देंहटाएंहवा स्थिर थी
जवाब देंहटाएंजब रौशन किया था
एक दीया
मचल गई ईर्ष्यालु आँधी
और
लौ को हाथों की ओट
दे दिया हमने - - नाज़ुक भावनाओं से प्रस्फुटित क्षणिकाएं मन्त्रमुग्ध करती हैं - - नमन सह।
सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंसुंदर।
जवाब देंहटाएंवाह !बहुत ही सुन्दर।
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