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चले थे कहाँ से कहाँ जा रहे हैंशजर काट कैसी हवा पा रहे हैं
न दिन है सुहाना न रातें सुहानी
ख़बर में कहर हर तरफ़ छा रहे हैं
मुहब्बत की बातों को दे दो रवानी
न जाने ग़दर गीत क्यों गा रहे हैं
है रंगीन दुनिया सभी को बताना
ये सिर फाँसियों पर बहुत आ रहे हैं
विरासत में हमने बहुत कुछ था पाया
क्यों माटी में घुलता ज़हर खा रहे हैं
@ऋता शेखर 'मधु'
बहुत अच्छी ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
हटाएंअति सुन्दर गजल
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आदरणीय।
हटाएंमुहब्बत की बातों को दे दो रवानी
जवाब देंहटाएंन जाने ग़दर गीत क्यों गा रहे हैं
ऐसा लग रहा कि मुहब्बत तो बची ही नहीं कहीं । खूबसूरत ग़ज़ल
हार्दिक आभार दी।
हटाएंवाह! लाज़वाब!!!
जवाब देंहटाएंविरासत में हमने बहुत कुछ था पाया
जवाब देंहटाएंक्यों माटी में घुलता ज़हर खा रहे हैं
अति पाने की चाह में जहर भी खुद ही घोल रहे हैं माटी में....
बहुत उम्दा सँजन।
वाह!!!
धन्यवाद सुधा जी।
हटाएंआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिए धन्यवाद !
हटाएंजय मां हाटेशवरी.......
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 07/05/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
धन्यवाद कुलदीप जी।
हटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम जी।
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंआभार आपका।
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी।
हटाएंजी वाकई लाजवाब पंक्तियाँ लिखी है आपने। अभी की परिस्थितियों पर मैं इसे रचनाओं में गिनती करूंगा। सराहनीय एवं विचारनी योग्य बातें है। हम इंसान को अब अपने रोज के दिनचर्या पर ख्याल करना होगा।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद प्रकाश जी।
हटाएंवाह! बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वाणी जी।
हटाएंशुक्रिया वाणी जी।
हटाएंशुक्रिया कुलदीप जी।
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