मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

गुलामी-लघुकथा

गुलामी-
''मैम, जल जमाव के कारण हमारे इलाके की स्थिति बहुत खराब है| गाड़ी निकल नहीं सकती और पैदल चलकर आऊँ तो कमर जितने पानी में चलना होगा|''
एक मिनट की चुप्पी के पश्चात प्राचार्या ने कहा," आप डूबकर आएँ, तैर कर आएँ इससे हमे कोई मतलब नहीं|आना है तो आना है| यदि आप झंडोत्तोलन के दिन नहीं आईं तो आपकी गिनती देशद्रोही में की जाएगी|"
यह कहकर उन्होंने फोन काट दिया|
आजादी वाले दिन अपनी गुलामी पर नेहा रो दी| 
किसी तरह  नुक्कड़ पर पहुँची जहाँ से प्रतिदिन रिक्शा लिया करती थी| वहाँ लगभग सभी रिक्शावाले उसे पहचानते थे|
सभी अपने अपने रिक्शे में ताला लगाकर बैठे थे| एक बूढ़े रिक्शावाले ने कहा-'' आप मेरे रिक्शे में बैठ जाएँ, मैं पहुँचा दूँगा|''
उस कमजोर से रिक्शे वाले के रिक्शा पर बैठते हुए नेहा का दिल रो दिया| मगर वह करती भी क्या|
पन्द्रह रुपया और दस मिनट की दूरी वाले विद्यालय की दूरी अचानक बहुत बड़ी लगने लगी|
चारो तरफ पानी ही पानी और रिक्शावाला किसी तरह पूरे दमखम के साथ रिक्शा खींच रहा था| पूरे पैंतालीस मिनट लगे गंतव्य पर पहुँचने में|
उसने सौ रुपए बढ़ाए उस गरीब की ओर| मगर उसने अपने लिए पन्द्रह रुपए रखकर बाकी पैसे लौटा दिए| नेहा का दिल भर आया| उसने वहीं से देखा कि विद्यालय के बरामदे में खड़ी प्राचार्या मुस्कुरा रही थी|

*ऋता शेखर 'मधु'*

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह..इसी को कहते हैं ईमानदारी......ऑटो वाला पचास और मांगता

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  2. सत्य है एक पद की गरिमा से भरी थी, एक कर्तव्य की बेदी पर चढ़ी थी और एक भाव का सम्राट था...सुंदर

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