पाँच
त्रिवेणियाँ...
१.
सत्य
का तेज सहना आसान नहीं
जो
नैनो से बोले वो बेजुबान नहीं
ऐ
झूठ, तू काले चश्मे से ही इसे देख पाएगा
२.
मन
मेरा पतंग हुआ जाता है
बे
रोक टोक स्वच्छंद हुआ जाता है
मँझे
डोर में बंधे रहना ही हमें भाता है
३.
सरसो
के खेत से जो देखा आसमान
पीत
वर्ण में दिखे अपने सारे अरमान
पुलकारी
दुपट्टे पर बसंत छा गया
४.
श्मशान
से उठता रहा घना घना धुआँ
लम्हा
लम्हा जिन्दगी उड़ती रही
नश्वरता
की झलक गहरे उतर गई
५.
वो
बन्द कमरे में पड़ा खाँसता रहा
मन
ही मन जीवन को बाँचता रहा
उम्र
की वह दहलीज मन दहला गई
*ऋता
शेखर ‘मधु’*
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-01-2016) को "विषाद की छाया में" (चर्चा अंक-2230) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्री सर !!
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