संवैधानिक अधिकार-सदुपयोग या दुरुपयोग
अधिकार, एक ऐसा शब्द जो सुख, सुविधा और सहुलियत के दरवाजे खोलता है| कहते हैं जब मनुष्य अपना कर्तव्य करता है तो अधिकार खुद ब खुद मिल जाते हैं| समाज में रहने के लिए कर्तव्य और अधिकार, दोनों आवश्यक हैं|
अब सवाल यह उठता है कि कानूनी रूप से अधिकार लेने की नौबत कब आती है| तभी न जब सामने वाला उसे वह सहुलियत देने में अनदेखी करे या आनाकानी करे| कई मामलों में अधिकार को कानूनी रूप देना आवश्यक हो जाता है|
किन्तु जब किसी को मिला हुआ अधिकार उसे अहंकारी बना दे, निरंकुश बना दे तो कानून पर पुनर्विचार की आवश्यकता आ जाती है|
*हम यहाँ पर शुरु करते हैं उस अधिकार की बात से जब वैवाहिक विच्छेद को कानूनन स्वीकृत किया गया| 1955 में हिन्दु मैरिज एक्ट के तहत हिन्दु रीति रिवाज से हुए विवाह को मान्यता प्राप्त थी| बाद में उसे कानून के हाथों में सौंपा गया जब किसी परिस्थिति में पति-पत्नी का साथ रहना सम्भव नहीं हो पाए तो विवाह विच्छेद ही एकमात्र विकल्प बचता है| यह परिस्थिति में पत्नी को क्या क्या सुविधाएँ मिलनी चाहिए, इसपर कई संशोधन हुए| धीरे धीरे यह कानून जहाँ एक ओर स्त्रियों को सहुलियत देने लगा वहीं कुछ इसका दुरुपयोग भी करने लगे| झूठे आरोप गढ़े जाने लगे| घरों को टूटने की संख्या बढ़ने लगी| संपत्ति के लिए या बदला लेने के लिए इन अधिकारों का दुरुपयोग किया जाने लगा|
*दहेज प्रतिबंध अधिनियम 1961 में बनाया गया| इसका उद्देश्य नवविवाहिता को दहेज उत्पीड़न से बचाना था| धीरे धीरे इन अधिकारों का दुरुपयोग आरम्भ होने लगा| तब संशोधन की आवश्यकता पड़ी|27 जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया|अब दहेज उत्पीड़न मामले में केस दर्ज होते ही गिरफ्तारी नहीं की जाएगी।
कोर्ट ने नाराज पत्नियों द्वारा अपने पति के खिलाफ दहेज-रोकथाम कानून का दुरुपयोग किए जाने पर चिंता जाहिर करते हुए निर्देश दिए कि इस मामले में आरोप की पुष्टि हो जाने तक कोई गिरफ्तारी ना की जाए। कोर्ट ने माना कि कई पत्नियां आईपीसी की धारा 498ए का दुरुपयोग करते हुए पति के माता-पिता, नाबालिग बच्चों, भाई-बहन और दादा-दादी समेत रिश्तेदारों पर भी आपराधिक केस कर देती हैं। जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा कि अब समय आ गया है जब बेगुनाहों के मनवाधिकार का हनन करने वाले इस तरह के मामलों की जांच की जाए।
कोर्ट द्वारा जारी की गई गाइडलाइंस के मुताबिक, हर जिले में एक परिवार कल्याण समिति गठित की जाएगी और सेक्शन 498A के तहत की गई शिकायत को पहले समिति के समक्ष भेजा जाएगा। यह समिति आरोपों की पुष्टि के संबंध में एक रिपोर्ट भेजेगी, जिसके बाद ही गिरफ्तारी की जा सकेगी। बेंच ने यह भी कहा कि आरोपों की पुष्टि से पहले NRI आरोपियों का पासपोर्ट भी जब्त नहीं किया जाए और ना ही रेड कॉर्नर नोटिस जारी हो।
*हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 में संशोधन से पहले, परिवार के केवल पुरुष सदस्य ही प्रतिपक्षी थे, लेकिन बाद में बेटियों को भी एक हिस्सा पाने का हकदार बना दिया गया। अब सोचने वाली बात यह है कि इस संशोधन की आवश्यकता ही क्यों पड़ी| इसलिए न कि यदि बेटी किसी विशेष परिस्थिति में माता पिता की संपत्ति का कुछ हिस्सा चाहे तो भाई इसके लिए कदापि तैयार न होंगे| साधारणतंः विवाहित खुशहाल बेटियाँ संपत्ति पर अपन दावा नहीं ठोकतीं किंतु बेटी का किसी कारणवश पति से संबंध विच्छेद हो जाए तो वह कहाँ जाए| या फिर कोई बेटी अविवाहित रह जाए तो उसे भी माता पिता के घर में रहने का उतना ही अधिकार है जितना बेटे को| किसी भी घर की बिक्री के लिए बेटियों की सहमति भी आवश्यक है| इससे बेटों की मनमानी पर रोक लगी|
*एक एनजीओ कॉमन कॉज ने 2005 मेंसुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा कि इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न का सपॉर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2018 को ऐतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छा मृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को गाइडलाइन्स के साथ कानूनी मान्यता दे दी है। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि कब वह आखिरी सांस ले। कोर्ट ने कहा कि लोगों को सम्मान से मरने का पूरा हक है। लिविंग विल' एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। 'पैसिव यूथेनेशिया' (इच्छा मृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है।
अब देखना यह है कि इस फेसले का सदुपयोग ही हो|
*अब बात करते हैं अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण की| भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव रामजी आंबेडकर ने स्वतंत्र भारत में अनुसूचित जाति/जनजाति के उत्थान के लिए सभी सरकारी लाभ के लिए उनका प्रतिशत निश्चित किया था| यह सर्वप्रथम दस वर्षों के लिए लागू की गई| बाद में इसकी अवधि बढ़ाकर चालीस वर्ष की गई| आरक्षण तो मिला पर दलित समाज को उनकी जाति का नाम लेकर व्यंग्य और कटाक्ष करने वाले भी कम न थे| इसे मद्देनजर रखते हुए अगस्त 1989 में नियम बनाया गया कि कोई सवर्ण जाति यदि ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं जिनसे उनकी भावनाएँ आहत होती हैं और उनकी शिकायत थाने में दर्ज की जाती है तो तुरंत उस तथाकथित व्यक्ति को गिरफ्तार करना होगा| उस दलित को मुआवजा भी दिया जाएगा|
कानून दलित समाज के भले के लिए था किन्तु धीरे धीरे यह धमकी का रूप लेने लगा| इसी कानून का हवाला देकर झूठे आरोप भी लगाए जाने लगे| जितने केस दर्ज़ हुए उनमें करीब सत्तर प्रतिशत केस झूठे साबित होने लगे| नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश को अनुसूचित जाति के उनके जुनियर जजों ने फँसा दिया| इन सबके मद्देनजर कानून में सुधार की आवश्यकता पड़ी| मार्च 2018 में इस नियम में बदलाव किया गया है और शिकायत पर तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाई गई है||
-ऋता शेखर 'मधु'
बहुत शिक्षाप्रद जानकारी.लेकिन अंतिम पैरे में तथ्यों का और विस्तार किया जा सकता है कि नियम में इस बदलाव की पृष्ठभूमि कैसे पैदा हुई और कैसे एक अधिकारी के अनावश्यक उत्पीडन के मामले में आला अदालत को इसका नोटिस लेना पडा और फिर सियासती गुर्गों ने कैसे लोगों को गुमराह किया! अच्छे लेख की बधाई!
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, विश्व स्वास्थ्य दिवस - ७ अप्रैल २०१८ “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-04-2018) को ) "अस्तित्व बचाना है" (चर्चा अंक-2935) पर होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी