मंगलवार, 27 अगस्त 2019

अपनी अपनी नौकरी-लघुकथा



अपनी अपनी नौकरी

सरकार की ओर से जमींदारी प्रथा खत्म हो चुकी थी।फिर भी लोकेश बाबू जमींदार साहब ही कहलाते थे।उनके सात बेटे शहर में रहकर पढ़ाई करते और लोकेश बाबू मीलों तक फैले खेत की देखरेख और व्यवस्था में लगे रहते। धीरे धीरे सातों बेटे ने उच्च शिक्षा प्राप्त की और पदाधिकारी बनते गए। लोकेश बाबू को यह चिंता सताने लगी कि गाँव के जमीन जायदाद की देखभाल कौन करेगा। सब शहर में रहकर नौकरी करना चाहते थे।एक बार उन्होंने यही बात सभी बेटों के सामने रखी।उनमें एक बेटा गाँव में रहकर देखभाल के लिए तैयार हो गया। जब वे जीवित थे तो सभी बेटों को पैदावार का कुछ हिस्सा भेज दिया करते थे। जमींदार साहब को गए पाँच वर्ष बीत चुके थे।अब किसी को कुछ भी नहीं भेजा जाता था।

आज अचानक छोटे भाई उमेश को देख गाँव वाले भाई सोमेश को बहुत खुशी हुई। दोनों भाई देर तक हरियाली भरे खेतों में घूमते रहे। घूमते घूमते उमेश ने दिल की बात बता ही दी।
"भैया, पिताजी के जाने के बाद हमलोगों को खेत का कुछ भी नहीं मिल रहा। लगता ही नहीं कि हम खेतिहर परिवार से हैं।"
"देखो बाबू, जैसे तुमलोग शहर में रहकर नौकरी करते हो तो मैं तो तुम्हारी नौकरी के पैसे से कुछ नहीं माँगता। खेती ही मेरी नौकरी है और पैदावार मेरी तनख्वाह। यदि तुम्हे पैदावार में हिस्सा चाहिए तो अभी इन बैलों को हल में जोतकर दिखा" । यह कहते हुए सोमेश ठठाकर हँस पड़ा।
"पिता जी की इच्छा का मान रखते हुए मैंने गाँव और खेती स्वीकार किया और तुमलोगों ने शहर और नौकरी। खेत की जमीन जब चाहे ले लेना। फिर उस पैदावार पर तुम्हारा हक होगा भाई मेरे"
उमेश मुस्कुरा दिया क्योंकि यही जवाब उसे शहर लौटकर बड़े भाइयों को देना था।
-अप्रकाशित
ऋता शेखर मधु

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