शनिवार, 10 मार्च 2012

नारी,स्वयंसिद्धा बनो





ओ धरा-सी वामा तू सुन,
गीले नयनों को नियति न मान
अपने आँसुओं का कर ले निदान
स्वयं को साबित करने की ठान
चल पड़ी तो राह होगा आसान|

तेरा  यह  क्रंदन  है  व्यर्थ
जीती  है  तू  सबके  तदर्थ
तू खुद को बना इतना समर्थ
तेरे  जीने का भी  हो  अर्थ|

जिस सृष्टि का तूने किया निर्माण
उसी सृष्टि में मत होने दो अपना अपमान|
तेरे भी अधिकार हैं सबके समान
नारी तू महान थी, महान है, रहेगी महान|

आज की नारी

नारी व्यथा की बातें हो गईं पुरानी
नए युग में बदल रही  है  कहानी|
बनती हैं अब वह घर का आधार
पढ़ें-लिखें करें पुरानी प्रथा निराधार|
बेटियाँ होती हैं अब घर की शान
उन्हें भी पुत्र समान मिलता है मान|
किशोरियों की होती है नई नई आशा
उनके गुणों को भी जाता है तराशा|
प्रमाण पत्रों पर होता माता का भी नाम
बदले युग में है यह नारी का सम्मान|
नारी शिक्षा पर है अब सभी का ध्यान
सरकारों के चलते हैं नए नए अभियान|
अब नारी के होंठ हँसते हैं
खुशी  से  पैर थिरकते हैं
सपने विस्तृत गगन में उड़ते हैं
इच्छाएँ पसन्द की राह चुनते हैं|
नारियों के मुख पर नहीं छाई है वीरानी
वक्त बदल गया,अब बदल गई है कहानी|

              ऋता शेखरमधु



11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ऋता जी....
    सार्थक रचना के लिए बधाई...

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  2. हाल-फिलहाल 'नारी-दिवस' के कारण कई कवितायें मिली पढने को जिसमें सिर्फ नारी की व्यथा ही वर्णित थी. मन में अक्सर ख़याल आ रहा था कि ऐसा नहीं है, बदलाव आ रहा है, बहुत हद तक परिदृश्य अलग है अब.
    आपकी सकारात्मक पंक्तियों से तसल्ली मिली.

    सादर

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  3. नारी को स्वयंसिद्धा ही होना होगा ... दोनों रचनाएँ सुंदर

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  4. बेटियाँ होती हैं अब घर की शान
    उन्हें भी पुत्र समान मिलता है मान

    बहुत सुंदर और प्रेरक रचना।

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  5. सुन्दर, सामयिक और सार्थक पोस्ट, आभार.

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  6. ये बदली हुयी कहानी भारत के कोने कोने में पहुंचे तो सही मायने में बदलाव आ सकता है ...

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