पितृपक्ष चल रहा है...पिण्डदान और तर्पण भारत की परम्परा है|
इसी बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करते हैं...तो बस यूँ ही
ख्याल आया...
आत्मा की बेड़ी
आत्मा है
बेड़ी रहित
अमर उन्मुक्त
अजर अनन्त|
बेख़बर है
खुशी और गम से
अनजान है
दर्द और संघर्ष से|
जगत की चौखट पर
रखते ही कदम
आरम्भ होती
बेड़ियों की श्रृंखला|
सर्वप्रथम मिलती
काया की बेड़ी,
फिर जकड़ती
एहसास की बेड़ी,
महसूस होने लगता
खुशी और गम
दर्द और जलन|
जन्म लेते ही चढ़ता
शरीर पाने का ऋण
होता वह
मातृ-पितृ ऋण की बेड़ी|
चुकता है तभी यह उधार |
करते जब उनका शरीरोद्धार|
जन्म लेते ही
स्वत: जाती है जकड़
रक्त-सम्बन्ध की बेड़ी|
प्यार से निभाएं अगर
रहती है रिश्तों पे पकड़|
सभ्य समाज ने जकड़ी
अनुशासन की बेड़ी,
दाम्पत्य की बेड़ी,
वात्सल्य की बेड़ी|
इन प्यारी बेड़ियों को
रखना है साबूत,
कर्त्तव्य की बेड़ी को
करना होगा मज़बूत|
कुछ बेड़ियाँ होती भीषण
फैलातीं भारी प्रदूषण|
हैं वह
कट्टर धर्म की बेड़ी
जातीयता की बेड़ी
अहम् की बेड़ी,
जलन की बेड़ी|
बेड़ी मोह माया की
तोड़ना नहीं आसान,
स्वत: टूट जाएंगी
होगा जब काया का अवसान|
जीवन विस्तार को भोग
होंगे पंचतत्व में विलीन|
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त|
ऋता शेखर ‘मधु’
बिल्कुल श्राद्ध चल रहा है। पिंडदान और तर्पण भी चल रहे है
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना, या कहें पूरा दर्शन है आपकी कविता में
बेड़ी मोह माया की
तोड़ना नहीं आसान,
स्वत: टूट जाएंगी
होगा जब काया का अवसान|
बहुत सुंदर
बीड़ियों में जकड़ी आत्मा .... सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजीवंत भावनाएं.सुन्दर चित्रांकन,बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबेह्तरीन अभिव्यक्ति
बेहद सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंसुख बंधन में है या मुक्ति में...कौन जाने....
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ऋता जी....
सस्नेह
अनु
बेड़ी मोह माया की
जवाब देंहटाएंतोड़ना नहीं आसान,
स्वत: टूट जाएंगी
होगा जब काया का अवसान|...बहुत सही कहा ऋता .. सुंदर प्रस्तुति
जीवन विस्तार को भोग
जवाब देंहटाएंहोंगे पंचतत्व में विलीन|
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त|
सशक्त भाव लिये उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
जीवन विस्तार को भोग
जवाब देंहटाएंहोंगे पंचतत्व में विलीन|
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त ...उस उन्मुक्त आत्माओं का पक्ष् यानि पितृपक्ष सम्मानपूर्वक गुजरे -बेड़ियों से मुक्त
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंजन्म लेते ही
जवाब देंहटाएंस्वत: जाती है जकड़
रक्त-सम्बन्ध की बेड़ी|
प्यार से निभाएं अगर
रहती है रिश्तों पे पकड़,,,,,,,,,
पितृपक्ष के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करते हैं..
RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
बंधन और मुक्ति के की यही जद्दोज़हद हैरान करती है.... बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 11-10 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....शाम है धुआँ धुआँ और गूंगा चाँद । .
शुक्रिया संगीता दी!!
हटाएंउन्हों बेड़ियों की बदौलत समाज में अनुशासन रह पता है . बहुत खुबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंआत्मा की बेड़ी का़टने को मन को साधना पड़ेगा पहले -
जवाब देंहटाएं'माया मरी न मन मरा मर-मर गये सरीर '-कबीर
बहुत गहन भावों को व्यक्त करती बेहतरीन रचना..
जवाब देंहटाएंबेड़ी मोह माया की
जवाब देंहटाएंतोड़ना नहीं आसान,
स्वत: टूट जाएंगी
होगा जब काया का अवसान|
जीवन विस्तार को भोग
होंगे पंचतत्व में विलीन|
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त|
भावपूर्ण....!समस्त आत्माओं को श्रद्धांजलि...!!
बहुत बढ़िया प्रस्तुत |
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट:- ओ कलम !!