हमारे श्रमिक...
सिर पर गारा हाथ में छेनी
धूप भी तो स्वीकार है
पेट है खाली तन पर चिथड़े
ना कोई प्रतिकार है
मौन मुख बाजू फौलादी
सबके ही मददगार हैं
झुलसा तन माथे पर बूँदें
प्रेम के हकदार हैं
ईंटों से ईंटें जोड़ रहे
आँखें निर्विकार हैं
जूझ रहे मशीनों की भट्ठी में
क्यूँ उनका तिरस्कार है?
एक जून रोटी की खातिर
तीन जून न्योछार है
कोमलांगी पत्थर जब तोड़े
मानवता को धिक्कार है
बिन इनके तो देश चले ना
ये 'अर्थ' के आधार हैं
समय बदला नीयत बदली
दो, जो इनके अधिकार हैं
रख लेते जो मान सदा इनका
वहाँ टिक जाती सरकार है
..ऋता शेखर मधु
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (02.05.2014) को "क्यों गाती हो कोयल " (चर्चा अंक-1600)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशारीरिक श्रम को उचित महत्व देकर उसका सही मूल्यांकन किया जाना है आश्यक है .
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी सामयिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंदेखो धूप बरख रही, सागर नाथ न्हाए ।
जवाब देंहटाएंधनबन घन बिहीन रहे, पाहन घन घन पाए ।१४७८।
भावार्थ : - देखो धूप बरस रही है सागर जी नहा रहे हैं। गगन घन से रहित है और पाहन गहनतम घन को प्राप्त है ॥