गुरुवार, 16 जून 2016

काला तोहफा-लघुकथा

काला तोहफा
" देखो निम्मी, आज मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ|''
''क्या,'' प्रश्न भरी निगाहों से निर्मला ने अंकित को देखा|
अंकित ने बिस्तर पर हल्के नीले रंग की काँजीवरम की साड़ी फैला दी और उसपर एक नेकलेस रख दिया जिसके लॉकेट पर हीरे का सुन्दर सा नग चमक रहा था|
निर्मला की आँखें खुशी से दमक गईं| उसने टैग पर कीमत देखी और अगले ही पल बुझ सी गई|
''क्या हुआ निम्मी,'' अंकित ने उसके चेहरे के उतार चढ़ाव को भाँपते हुए कहा|
''मैंने कब कहा कि मुझे यह सब चाहिए| बचपन से मैंने सीखा है कि पाँव उतना ही पसारो जितनी बड़ी चादर हो| मैं यह जानती हूँ कि घर चलाने के लिए तुम कितनी मेहनत करते हो| मैं और बच्चे तुम्हारी आमदनी से बिल्कुल संतुष्ट हैं|'' निम्मी ने बड़े ही सहज ढ़ग से कहा|
'' जब भी मैं तुम्हें साड़ी या जेवर के दुकान में हसरत से इन चीजों को देखते हुए देखता था तो न दिला पाने की ग्लानि होती थी मुझे|''- शांत स्वर में अंकित बोल रहा था|
'' तो क्या हुआ, चीजें तो दुकान में ही देखी जाती हैं| इसका अर्थ यह नहीं कि हम उन्हें खरीद ही लें|'' 
उसने ध्यान से निर्मला को देखा| उसके मुखमण्डल पर सिंदूरी आभा गहराती जा रही थी|
अंकित ने सामान समेटते हुए सोचा कि जमीर बेचकर खरीदे गए काले तोहफे से वह इस दिव्यता को धूमिल नहीं कर सकता|
-ऋता शेखर 'मधु' 

2 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " किताबी संसार में ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-06-2016) को "करो रक्त का दान" (चर्चा अंक-2376) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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