रविवार, 26 फ़रवरी 2017

मनमर्जी - लघुकथा

मनमर्जी

"माँ, पिताजी, मुझे कुछ सालों के लिए विदेश जाना पड़ेगा। ऑफिस के काम से जाना है" अखिल ने एक दिन ऑफिस से आते ही कहा।


"लेकिन बेटा, जाना क्या टल नहीं सकता। तू मेरा अकेला पुत्र है और हमारी नजरों के सामने ही रहे तो हमें संतोष रहता है।"

"जाना टल सकता था माँ, किन्तु मैं क्या बोलूँ, मीरा ने जाने की जिद पकड़ रखी है।"

"उसे समझाओ, यहाँ सब एकसाथ रहते हैं तो कितना अच्छा लगता है।"

"कितना तो समझा रहा हूँ पर वो माने तब न" अखिल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा।

" तब तो तुम्हे जो उचित लगे वही करो" मायूस माँ ने कहा।

अखिल ने कमरे में जाकर मीरा से भी यह बात बताई। उसके बाद वह किसी काम से बाहर चला गया।
मीरा आँखों में आंसू भरकर सास के पास गई।

"माँ जी, मैं यहीं रहना चाहती हूँ। आप अखिल से कहिये न कि न जाएँ।" यह सुनकर माँ कुछ कहना चाहती थी कि पिता ने उन्हें रोक दिया। मीरा चली गई।

"अखिल की माँ, आज मैं अपने बेटे की चालाकी और बहु की सच्चाई समझ पा रहा हूँ। पहले भी हमारी नजरों में बहु को बदनाम कर वह बहुत  मनमर्जी कर चुका है।"

तब तक अखिल वापस आ चुका था|

'बेटे अखिल, तुम निश्चिंत रहो, हम बहु को समझा लेंगे|'

'किन्तु पिता जी, वह झगड़ा करेगी|'

'वह या तुम...?'

अखिल निरुत्तर रह गया|
-ऋता शेखर "मधु"

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-03-2017) को
    "खिलते हैं फूल रेगिस्तान में" (चर्चा अंक-2602)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. ये बेटे भी न
    अब क्य़ा लिखूँ आगे
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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