हे अशोक !
वापस आकर
हे अशोक! तुम
शोकहरण
कहला जाओ
लूटपाट से सनी
नगरिया
लगती मैली सबकी
चदरिया
नैतिकता का उच्चार
करो
सद्भावों का संचार
करो
प्रीत नीर से
हे अशोक! तुम
जन जन को
नहला जाओ
जितने मुँह उतनी ही
बातें
सहमा दिन चीखती
रातें
मेघ हिचक जाते आने
में
सूखी धरती वीराने
में
हेमपुष्प से
हे अशोक! तुम
हर मन को
बहला जाओ
नकली मेहँदी नकली
भोजन
पल में पाट रहे अब
योजन
झूठ के धागे काते
तकली
आँसू भी हो जाते
नकली
हरित पात से
हे अशोक! तुम
कण कण को
सहला जाओ
भूमिजा को मिली थी
छाया
रावण उसके पास न आया
फिर उपवन का निर्माण
करो
हर बाला का सम्मान
करो
वापस आकर
हे अशोक! तुम
शोकहरण
कहला जाओ
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-09-2018) को "हिन्दी दिवस पर हिन्दी करे पुकार" (चर्चा अंक-3094) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'