चारों ओर निशा पसरी हुई थी| निशा के स्याह आँचल पर नन्हें नन्हें सितारे जगमग कर उसकी सुन्दरता बढ़ा रहे थे| एक पूरा चाँद मुस्कुराता हुआ निशा के साँवले मुख को अलौकिक सुन्दरता प्रदान कर रहा था| सृष्टि के निर्माता ब्रम्हा जी धरती पर सागर के किनारे एकांत में बैठे विचारमग्न थे| सिर्फ धरती का कठौर तल, हहराते सागर, चमकता सूर्य, लुभावने सितारे. शातल चाँद के अलावा भी कुछ चाहिए था जो पूरी सृष्टि को मनभावन और चलायमान बना सके| यह सोचते हुए ब्रम्हा जी हाथों में भीगे रेत लेकर सके गोले बनाने लगे| उसे विभिन्न आकार देकर कुछ को धरती पर रहने लायक गढ़ते, कुछ आकार जो समुद्र में रह सकें और कुछ को आसमान में उड़ने लायक बनाया| अब उनकी कल्पना में वे सारे आकार चलने , उड़ने और तैरने लगे| हर गढ़न में अब उन्हें यह ख्याल भी रखना था कि वे शरीर की वृद्धि करें और बाद में खुद जैसे जीवों का निर्माण भी करें ताकि उनकी कृतियों का अस्तित्व बना रहे| अब सवाल यह था कि इन सभी कृतियों में जीवन कैसे भरें| ये तो मात्र देह का निर्माण हुआ था| सोचते सोचते उन्होंने एक प्रकाश पुंज का निर्माण किया| वह पुंज ब्रम्हा जी के सामने आकर पूछने लगा,’प्रभु, मेरे अवतरण का प्रयोजन क्या है’
‘तुम सभी अदृश्य टुकड़ों में विभाजित हो जाओ और अपने पसंद की आकृतियों में समा जाओ| तुम्हारे समाहित होने से ये सभी आकृतियाँ जीवित हो जाएँगी|’’
‘’ लेकिन प्रभु, हम उन आकृतियों में कब तक कैद रहेंगे?’’
‘’सभी आकृतियों का निश्चित जीवन काल होगा| उसके बाद तुम्हें शरीर से मुक्ति मिल जाएगी| ज्योंहि तुम बाहर निकलोगे, वे आकृतियाँ मृत कहलाएँगी| जब तक तुम देह के अन्दर रहोगे, आत्मा या प्राण कहलाओगे|’’
‘’हे प्रभु! इतना बता दीजिए कि हम देह में समाने के बाद क्या व्यवहार करेंगे|’’
‘’पहले तुम सभी आत्माएँ अपनी देह धारण करो| उस देह के अनुरूप जो आचरण उचित होगा वही करना|’’
सभी आत्माओं ने एक एक आकृति ले ली| अब उस निर्जीव निस्तब्ध स्थान पर हलचल मच गयी|तरह तरह की ध्वनियाँ वातावरण में गुँजायमान हो गईं| कुछ वहीं धरती पर उछल कूद करने लगे, कुछ सागर में उतरकर मजे से तैरने लगीं| कुछ ने पंखों का इस्तेमाल किया और आकाश में उड़ गए| ब्रह्मा जी सब देखकर आनंदित होने लगे| तभी एक देह ने दूसरे पर हमला किया और उसकी देह को क्षत विक्षत कर दिया| उस देह के अन्दर की आत्मा आजाद हो गई| किन्तु वह दुखी भी थी क्योंकि आजाद होने के क्रम में देह ने जो यातना झेली वह असहनीय थी| ब्रह्मा जी ने हमलावर प्राणी को बुलाया और पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया|
‘’प्रभु, मुझे जो आकृति मिली उसे पेट भरने के लिए दूसरे पशु की देह चाहिए थी,’ इसलिए मैंने उस अनुरूप आचरण किया|ब्रह्मा जी चुप रह गए क्योंकि इसमें उस शिकारी देह की कोई गल्ती नहीं थी| उसके निर्माता तो वही थे| उधर आसमान में उड़ने वाली एक देह ने अपने से छोटी देह वाली एक आकृति को गिरा दिया था| सृजन के साथ विध्वंस का सिलसिला होते देख ब्रह्मा जी चिंतामग्न हो गए|
अब वे ऐसी आकृति का निर्माण करना चाहते थे जो आपस में प्यार से रह सकें| इसी क्रम में दो नन्हीं आकृतियाँ गढ़ी गयीं जो बिल्कुल एक समान थीं| उन्हें समान बुद्धि और समान ताकत भर दिए| एक खासियत और दी कि वह अपनी जिह्वा का उपयोग करके तरह तरह की आवाजें निकाल सकते थे| अपनी इस कृति पर ब्रह्मा जी निहाल हो गए| उन्हें पूरा विश्वास था कि इन देहों में जाने वाले प्राण प्यार से रहेंगे| अब उन्होंने सृष्टि को आगे बढ़ाने के ख्याल से उनकी काया में थोढ़ा सुधार किया और दोनों मिलकर सृष्टि को आगे बढ़ा सकें, इसके लिए थोड़े से अंग परिवर्तन कर दिए| अब उन्होंने आत्माओं को आज्ञा दी कि अपनी पसंद की किसी देह में प्रविष्ट हो जाओ| आत्माओं ने प्रभु की आज्ञा का पालन किया और देः में प्रविष्ट हो गए| देह और आत्मा का यह साथ अत्यंत आह्लादकारी साबित हुआ| दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित हुए और प्रेमपूर्वक रमणीय स्थल चुनकर रहने लगे|
अब ब्रह्मा जी निश्चिंत हो गए कि उनका काम पूरा हो गया| आखिरकार उन्होंने देह और आत्मा का सुन्दर समायोजन कर लिया था|
दिन बीत चले समय आने पर दोनों काया ने मिलकर नयी काया का निर्माण किया| जिस काया ने नन्ही काया को खुद में समेटकर रखा था वह उसकी देखरेख में व्यस्त हो गई| स्वयं को उपेक्षित होता देख दूसरी काया नाराजगी जाहिर करने लगी| अब उनके बीच उपालम्भों का आदान प्रदान होने लगा| जब बात असह्य होने लगीतो दोनों अपनी शिकायतें लेकर प्रभु के पास पहुँचे| प्रभु ने उनकी बातें सुनी और कहा,’ तुम दोनों ने मेरी उम्मीद को धराशायी कर दिया| आखिर ये शिकायतें कैसी|’
‘प्रभु, आपने एक काया में ममता भरी और वह नम्रता सीख गयी| दूसरे में ताकत थी, वह अहंकारी हो गया,’ममतामयी काया कह उठी|
‘प्रभु, अब यह सवाल जवाब करने लगी है| उसने बुद्धि का उपयोग शुरू कर दिया है| मैं उसे तर्क से नहीं बल्कि ताकत से ही हरा सकता हूँ,’ये अहंकारी देह की आवाज थी|
‘क्या तुम दोनों आत्माएँ प्रेमपूर्वक नहीं रह सकतीं,’ प्रभु अपनी ही बनायी रचना के सामने विनीत भाव से बोले|
‘रह सकते हैं, जब हम इस देहरूपी बंधन से आजाद हो जाएँगे| जब तक हम दोनों के पास काया, वाणी और बुद्धि रहेगी, तर्क वितर्क चलते रहेंगे| इन सबके बावजूद भी हम एक दूसरे का ख्याल रखेंगे| यह देह का तिलस्म है प्रभु जी| अब आप भी इसमें कुछ नहीं कर सकते,’यह कहकर दोनों आत्माएँ ब्रह्मा को उनके ही तिलस्म में हैरान करके
एक दूसरे का हाथ पकड़कर मुस्कुराती हुई ओझल हो गईं|
-ऋता शेखर ‘मधु’
मानव तभी तक जीवित है जब तक उसके शरीर में आत्मा का वास है...वरना मृत है| आत्माओं का व्यवहार देह पाने के बाद बदल क्यों जाता है...चिंतन से उपजी एक कहानी आपको भी अवश्य पसंद आएगी|अपनी राय देंगे तो लेखन में सुधार जारी रहेगा, धन्यवाद मित्रों|
बहुत सुन्दर ।
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