गुरुवार, 4 जुलाई 2019

ग्रीष्म

ग्रीष्म ऋतु
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ग्रीष्म की दुपहरिया
कोयल की कूक से
टूट गयी काँच सी

छत पर के पँखे
सर्र सर्र नाच रहे
हाथों में प्रेमचंद
नैंनों से बाँच रहे

निर्मला की हिचकियाँ
दिल में हैं खाँच सी

कोलतार पर खड़े
झुंड हैं मजूरों के
द्वार पर नाच रहे
बानर जमूरों के

लू की बड़ी तपन
खस में है आँच सी

चंदन की खुश्बू सा
खत भी है पास में
आएगा जवाब एक
प्रेम भी है आस में

विचारों की आँधियाँ
परख रहीं जाँच सी

गपशप की इमरती
ठहाकों में छन रही
आम की फाँकों पर
मेथी मगन रही

जीभ की ग्रंथियाँ
चटपटी कुलाँच सी

-ऋता शेखर ‘मधु’

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-07-2019) को ", काहे का अभिसार" (चर्चा अंक- 3387) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह ! ग्रीष्म की अलसाई दोपहरी का शानदार चित्रण..

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