रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथी लिपि के जनक


कैथी लिपि- ऋता शेखर मधु


कैथी  या "Kayasthi" लिपि का जनक ,भारत के एक सामाजिक समूह कायस्थों को माना जाता है|  कहा जाता है कि ऐतिहासिक उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में से पूर्व उत्तर - पश्चिमी प्रांत, अवध और बिहार में इस लिपि का प्रयोग व्यापक एवं मुख्य रूप से किया जाता था| इस स्क्रिप्ट का इस्तेमाल सामान्य पत्राचार, शाही अदालतों और संबंधित निकायों की कार्यवाही , राजस्व लेनदेन, कानूनी, प्रशासनिक और निजी दस्तावेजों के रिकॉर्ड को लिखने एवं उसे बनाए रखने के लिए किया गया था.
सोलहवीं शतावदी के दस्तावेजों से साफ पता चलता है कि मुगल काल के दौरान इस लिपि का व्यापक इस्तेमाल किया गया था|
1880 के दशक में, ब्रिटिश राज के दौरान, बिहार के कानूनी अदालतों में कैथी स्क्रिप्ट को आधिकारिक तौर पर सरकारी मान्यता दी गई थी| आगे चल कर देव-नागरी लिपि का व्यापक इस्तेमाल होने के कारण यह धीरे-धीरे विलुप्त हो गया|

विकिपीडिया से साभार

यह लिपि लिखना मैं जानती हूँ...बचपन में अपनी नानी और दादी को लिखते देखती थी तो सीख लिया था|

ऋता शेखर 'मधु'



शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मेरा सहयात्री - ऋता



मेरा सहयात्री
करता है
बहुत प्यार मुझसे
मुँह अन्धेरे ही
भेजता संदेसा
खुद के आने का
आते ही उसके
गूँज उठती है
खगों की चहचह
सुरभित होते
पुष्पों की महमह
पाते ही संदेश
नींद उड़ जाती मेरी
चल पड़ती मैं
उसके पीछे-पीछे
वह लगा रहता
हर सेकेंड हर मिनट
हर घंटे हर कदम
मेरे पास- पास
साथ उसके चलने से
बनी रहती है ऊर्जा मेरी
कभी-कभी
होती है कोफ़्त
क्यूँ करता है वह
हर वक्त मेरा पीछा
कभी देखती उसे मैं
हँसकर और कभी
आँखें तरेर कर
उसे फ़र्क नहीं पड़ता
वह मुझे घूरता ही रहता
मैं भी कभी देखती
कभी अनदेखी करती
मेरे पीछे
कभी छोटी परछाई
कभी लम्बी परछाई बना
आगे- पीछे डोलता
धीरे-धीरे
वह थकने लगता
मैं भी थक जाती
आता जब विदाई का वक्त
पसर जाता
एक मौन सन्नाटा
पंछी नीड़ में दुबकते
फूल भी
पँखुड़ियाँ लेते हैं समेट
बुझा-बुझा सा वह
बुझी-बुझी सी मैं
मौन नजरों से
ले लेते हैं विदाई
विलीन हो जाता वह
अस्ताचल में, करके वादा
कल फिर आएगा
अरुणाचल से|

इस जुदाई से
मन ही मन मैं
खूब खुश होती
अब वह
नजर नहीं आएगा
उसकी पहरेदारी से दूर
चाँद-तारों से बातें करती
सिमट जाऊँगी मैं
नींद की आगोश में|

ऋता शेखर मधु

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

दिव्य उपहार कवच कुण्डल का कर्ण ने दे दिया दान - ऋता


Catch   My Post


June
13 / 2012

published


Catch My Post पर मैंने यह कविता पोस्ट किया था| बीच में मैं पासवर्ड भूल गई थी इसलिए इसका पेजहिट्स नहीं देख पा रही थी|
थोड़ी कोशिशों के बाद आज यह खुल गया तो अपना अकाउंट चेक किया...कितने हिट्स मिले हैं इसे आप भी देख लीजिए|
1st January को इसे इस ब्लॉग पर भी पोस्ट कर चुकी हूँ, साल के अन्त में आज फिर से पोस्ट कर रही हूँ|

ऋता







































































Posted by: ऋता in हिंदी कविता Print PDF
Tagged in: SPL DAY

कल विश्व रक्तदान दिवस है|प्रस्तुत है एक कविता...

महादान

रखना था वचन का मान
दिव्य उपहार कवच- कुण्डल का
कर्ण ने दे दिया दान|

लोक हित का रखा ध्यान
दधिची ने दिया अस्थि- दान
शस्त्र का हुआ निर्माण
हरे गए असुरों के प्राण|
अनोखे दान को मिला स्थान|
दान कार्य जग में बना महान||

विद्यादान वही करते
जो होते स्वयं विद्वान,
धनदान वही करते
जो होते हैं धनवान,
कन्यादान वही करते
जिनकी होती कन्या सन्तान,
रक्तदान सभी कर सकते
क्योंकि सब होते रक्तवान|

रक्त नहीं होता
शिक्षित या अशिक्षत
अपराधी या शरीफ़
अमीर या गरीब
हिन्दू या ईसाई|
यह सिर्फ़ जीवन धारा है,
दान से बनता किसी का सहारा है|

रक्त कणों का जीवन विस्तार
है सिर्फ़ तीन महीनों का|
क्यों न उसको दान करें हम
पाएं आशीष जरुरतमन्दों का|

करोड़ों बूँद रक्त से
निकल जाए गर चन्द बूँद,
हमारा कुछ नहीं घटेगा
किसी का जीवन वर्ष बढ़ेगा|

मृत्यु बाद आँखें हमारी
खा़क में मिल जाएंगी,
दृष्टिहीनों को दान दिया
उनकी दुनिया रंगीन हो जाएगी|

रक्तदान सा महादान कर
जीते जी पुण्य कमाओ
नेत्र सा अमूल्य अंग दान कर
मरणोपरांत दृष्टि दे जाओ|
रक्तदान के समान नहीं
है कोई दूजा दान,
नेत्रदान के समान
है नहीं दूजा कार्य प्रधान|

ऋता शेखर मधु

 3 Comments

मैं फ़ेसबुक पर नहीं हूँ इसलिए वहाँ पर आभार व्यक्त नहीं कर सकती...सभी पाठकों का और अजीत जी, ओजस्वी जी एवं अर्चना जी का आभार !! इस कविता से प्रेरणा लेकर किसी ने भी रक्तदान किया हो उनका नमन !! यहाँ पर कमेन्ट डालने के लिए पेज को थोड़ा scroll कर नीचे जाना होगाः)








सोमवार, 10 दिसंबर 2012

प्रथम स्वेटर



प्रथम स्वेटर

बात उन दिनों की है जब मैं विद्यालय में पढ़ती थी|हमलोग सरकारी क्वार्टर में रहते थे|
हमारा घर मेन रोड के किनारे था|मेरे घर से कुछ दूरी पर सैनिक छावनी थी|
प्रतिदिन सवेरे-सवेरे वहाँ से राइफ़ल की गोलियाँ चलने की आवाज़ें आती थीं| उसके बाद सारे सैनिक ऊँचे-ऊँचे घोड़ों पर सवार होकर एक कतार में मेन रोड से निकलते थे| घोड़ों की टप-टप की आवाज और घोड़े... उन्हें देखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाती थी और तबतक देखती रहती थी जबतक अन्तिम सैनिक न चले जाएँ|
उन्हीं दिनों उन्नीस सौ इकहत्तर में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया था| सैनिक छावनी से भी सैनिकों को मोर्चे पर जाना था| एक दिन हमलोग विद्यालय में ही थे तभी प्रचार्या महोदया की ओर से संदेश आया कि सभी छात्राओं को मोर्चे पर जाने वाले सैनिकों को विदाई देनी है| हम सब, शिक्षक एवं शिक्षिकाओं सहित स्कूल की छत पर चले गए| उधर से सैनिकों से भरी छह या सात खुली बसें गुजरीं|हमने हाथ हिला हिला कर उनका अभिवादन किया| बस में से सैनिकों ने भी उत्साहपूर्वक शोर मचाते हुए अभिवादन स्वीकार किया|हम सभी की आँखें नम थीं क्योंकि इनमें से कितने लौट कर आने वाले थे, यह किसी को पता नहीं था|
एक सप्ताह के बाद यह ख़बर आई कि सैनिकों के लिए मोर्चे पर भेजने के लिए स्वेटर,अचार या उपयोग की अन्य वस्तुएँ स्कूल में जमा करनी थीं| मैं ने घर आकर अपनी दादी से अचार बनाने को कहा| स्वेटर मैं ख़ुद बुनना चाहती थी किन्तु उस समय मुझे स्वेटर बुनना नहीं आता था|फिर भी ज़िद करके मैंने ऊन मँगवाया और दिन रात एक करके स्वेटर बुनने लगी| देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत मैंने स्वेटर तैयार कर ही लिया| यह बात मुझमें बहुत रोमांच पैदा कर रही थी कि मैं उनके लिए कुछ कर रही हूँ जो हमारे लिए कड़ाके की ठंढ में मोर्चे पर डटे हैं| आज भी मैं बुनती हूँ तो उस प्रथम स्वेटर को अवश्य याद करती हूँ|
                                              
                                                    
ऋता शेखर मधु 
ठंढ के मौसम में वह स्वेटर याद आ गया इसलिए...:)

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

स्त्रियों का पुराण


स्त्रियों का पुराण

नारी सौभाग्यशालिनी है
क्योंकि
वह दुर्गा है
वह लक्ष्मी है
वह सरस्वती है
वह सीता है
वह ममता है
वह त्याग की देवी है
वह सहगामिनी है
वह पार्वती है
वह राधा है
वह मीरा है
वह चरणदासी है

इतने सारे रूप हैं
सिर्फ़ नारियों के लिए
किन्तु ये सारे रूप
कहाँ तय किए गए
वेद-पुराण और ग्रंथों में !!
किसके द्वारा तय किए गए
पुरुषों के द्वारा न !!

इतना सारा सम्मान
नारियों को
इतराने के लिए काफी हैं
खुद को
देवी साबित करने के लिए
सारी उम्र
बिता देना काफी है...है न !!

अब हम नारियाँ भी
नए पुराण लिखना चाहती हैं
हे पुरुषों,
तुम ब्रह्मा हो
तुम विष्णु हो
तुम महेश हो
तुम राम हो
तुम त्याग के देवता हो
तुम ममता की मूरत हो
तुम सहगामी हो
तुम चरणदाााा...नहीं नहीं
स्त्रियाँ निर्दयी नहीं हो सकतीं
कोई दास या दासी नहीं होता
स्त्री हो या पुरुष
सभी इंसान ही होते हैं
सबकी मर्यादा होती है

बस गुजारिश है
अब तुम भी
खुद को
देवता साबित करने में
लगे रहो...लगे रहो...उम्र भर !!

ऋता शेखर मधु

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

हम कहाँ जा रहे रहे हैं


गूगल से साभार

हम कहाँ जा रहे हैं...इस विषय पर सोचा जाए तो कई क्षेत्र हमारी आँखों के सामने झिलमिलाने लगते हैं जहाँ पर यह विचारणीय हो जाता है कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं|यह बात सही है कि पिछले तीस वर्षों में समाज की सोच में जो बदलाव आया है उसे फ़िफ्टी प्लस और माइनस के लोगों ने बहुत गहराई से महसूस किया है| बात यदि परम्परा और संस्कारों की ली जाए तो हमारी कई परम्पराओं को आज की पीढ़ी अँगूठा दिखाती हुई अपनी दुनिया में मस्त हैं| इसमें मैं युवा पीढ़ी को दोष नहीं देती क्योंकि इस तरह से रहने पर शायद हमारी सामाजिक व्यवस्था ने ही उन्हें मजबूर किया है| घर से बाहर रहकर नौकरी करना उनकी मजबूरी बन चुकी है| घर से दूर अकेले पड़ चुके बच्चे बहुत ज्यादा ही आत्मनिर्भर बन चुके हैं| हमारे समय में इस उम्र में हमें अपनी जिम्मादारियों का एहसास तक नहीं था क्योंकि संयुक्त परिवार में रहते हुए कभी आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई| आजकल के बच्चों पर दबाव ज्यादा है...बाहर रहते हुए कभी भूखे रहने की भी नौबत आती है तो वे बताते नहीं क्योंकि घरवाले दुखी हो जाएँगे|
दूसरों पर निर्भर होना उन्हें पसन्द नहीं| कोई उनको टोके यह भी पसन्द नहीं|
आजकल की लड़कियाँ भी आत्मनिर्भर हैं...यह बात समाज के विकास में सहायक है साथ ही साथ घातक भी है| वे किसी की बातों को बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं इसलिए अहं के टकराव की स्थिति बन रही है और पारिवारिक बिखराव ज्यादा दिख रहे हैं|
सबसे उहापोह की स्थिति हमारी उम्र(पचास के लगभग) के लोग झेल रहे हैं| एक तरफ हमारे पैरेन्ट्स हैं जो हमारी सोच के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं| समाज बहुत आगे बढ़ चुका है और उनके अनुभव हर फ़ील्ड में काम नहीं आते| एक तरफ़ हमारे बच्चे हैं जो हमसे समझौता करने के लिए तैयार नहीं| हमारी सोच की धज्जियाँ उड़ा देते हैं वे| आमने सामने बैठकर एक दूसरे के मनोभावों को चेहरे पर पढ़ते हुए हमारी गप्पबाजियों का आनन्द ही कुछ और था| आजकल फ़ेसबुक या किसी भी सोशल नेवर्किंग साइट पर चौबीसों घंटे रहना ही  दिनचर्या बन चुकी है|
ऐसे में हम भी नेट पर न रहें तो कितने पिछड़े नजर आएँगेः) एक ओर हम पिट्टो और गिल्ली डंडा जैसे खेल नहीं भूले हैं और आज विडियो गेम खेलकर बच्चों को टक्कर भी दे रहे हैं| हमने कोयलों पर भी हाथ काले किए हैं और आज माइक्रोवेव भी इस्तेमाल कर रहे हैं| बचपन में रिक्शे की सवारी करने वाले भली-भाँति गाड़ियाँ भी ड्राइव कर रहे हैं| हाट-बाजार से झोलों में सब्जी लाने वाले हम मॉल से बिना मोल-भाव किए और बिना चुने भिंडी भी खरीद रहे हैं|
अब बात कर लेते हैं ब्लॉगिंग की...बहुत सारी बातें जो हम घरों में नहीं कह पाते वह ब्लॉग पर लिख देते हैं| रेगुलर ब्लॉगिंग होती रहे इसके लिए हमारी बेचैनी बनी रहती है...कुल मिलाकर ब्लॉग पर ही जान अटकी रहती है| मैं तो स्कूल से आते ही नेट खोलती हूँ और इसके लिए सबकी नाराजगी भी झेल लेती हूँJ| कुल मिला कर हम कम्प्यूटर की दुनिया में प्रवेश करते जा रहे हैं| किसी तरह की जानकारी के लिए नानी-दादी की जरुरत नहीं...गूगल महाराज हैं नः)

ऋता शेखर मधु