. व्यवस्था का
नकाब
व्यवस्था सभी काम सुव्यवस्थित तरीके से करना चाहती थी पर हो
नहीं पाता था| इसी परेशानी में वह दफ़्तर की कुर्सी पर बैठी थी कि उसे सुखद
आश्चर्य हुआ जब उसने सामने अपनी पुरानी सहेली नकाब को देखा|
‘’क्या बात है भई, बड़ी परेशान दिख रही हो,’’ नकाब ने हँसते
हुए पूछा|
‘’ देखो न सखी, मैं चाहती हूँ कि सब कर्मचारी सही समय पर आएँ और
पूरी लगन, इमानदारी और निष्ठा से काम करें| लेकिन यह मुमकिन नहीं हो पाता| कोई देर
से आता है और कोई समय से आकर भी गप्पें हाँकता रहता है| मैं अपने से ऊपर वाले पदाधिकारी को क्या जवाब
दूँगी,’’ माथे पर हाथ रखकर व्यवस्था कह रही थी|
‘’ क्या यहाँ कोई मेहनती और सत्यवादी नहीं|’’
‘’ हाँ, एक बेचारा भला आदमी है जो कर्तव्यनिष्ठ है|’’
‘’ फिर तो बात बन गई| जब कोई पदाधिकारी आए तो उसे सामने कर दे
और वह सत्यनिष्ठ नकाब का काम करेगा और तेरी सारी अव्यवस्था को अपने भीतर छुपा लेगा,’’
मुस्कुराते हुए नकाब ने कहा|
व्यवस्था न चाहते हुए भी मान गई क्योंकि व्यवस्था ही कुछ ऐसी
थी|
-ऋता शेखर ‘मधु’
व्यवस्था न चाहते हुए भी मान गई क्योंकि व्यवस्था ही कुछ ऐसी थी| ..
जवाब देंहटाएं..सच है न चाहते हुए भी व्यवस्था का अंग बन ही जाता है आज कोई भी आदमी ...वृदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना ही पड़ता है ...
बहुत सुन्दर