आज एक ग़ज़ल
मजमून ही न पढ़ पाए दिल की किताब का
क्या फ़ायदा मिला उसे फिर आफ़ताब का
हर पल बसी निगाह में सूरत जो आपकी
फिर रायगाँ है रखना रुख पर हिजाब का
इस ख़ल्क की खूबसूरती होती रही बयाँ
हर बाग में दिखे है नजारा गुलाब का
हाथों में थाम कर के वो रखते रिमोट को
हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का
हल्की हुई गुलाब की लाली जो धूप से
देखा न जाए हमसे उतरना शबाब का
लिखती रही है मधु सदा जोश-ए-जुनून से
मिलता नहीं पता उसे कोई ख़िताब का
--ऋता शेखर 'मधु'
मजमून ही न पढ़ पाए दिल की किताब का
क्या फ़ायदा मिला उसे फिर आफ़ताब का
हर पल बसी निगाह में सूरत जो आपकी
फिर रायगाँ है रखना रुख पर हिजाब का
इस ख़ल्क की खूबसूरती होती रही बयाँ
हर बाग में दिखे है नजारा गुलाब का
हाथों में थाम कर के वो रखते रिमोट को
हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का
हल्की हुई गुलाब की लाली जो धूप से
देखा न जाए हमसे उतरना शबाब का
लिखती रही है मधु सदा जोश-ए-जुनून से
मिलता नहीं पता उसे कोई ख़िताब का
--ऋता शेखर 'मधु'
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-08-2017) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक 2704) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'