नभ अब्र से भरा हो निहाँ चाँदनी रहे
तब जुगनुओं से ही यहाँ शबगर्दगी रहे
मन में जले जो दीप अक़ीदत का दोस्तो
उनके घरों में फिर न कभी तीरगी रहे
कटते रहे शजर और बनते रहे मकाँ
हर ही तरफ धुआँ है कहाँ आदमी रहे
आकाश में बची हुई बूँदें धनक बनीं
हमदर्द जो हों लफ़्ज़ तो यह ज़िन्दगी रहे
हर उलझनों के बाद भी ये ज़िन्दगी चली
बचपन के जैसा मन में सदा ताज़गी रहे
*गिरह
भायी नहीं हमें तो कभी चापलूसियाँ
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे(ज़नाब निदा फ़ाज़ली)
-ऋता शेखर ‘मधु’
अब्र-बादल
निहाँ- छुपी रही
शबगर्दगी-रात की पहरेदारी
बहुत खूब वाहःह
जवाब देंहटाएंनमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति "पाँच लिंकों का आनंद" ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में गुरूवार 16 -11-2017 को प्रकाशनार्थ 853 वें अंक में सम्मिलित की गयी है। प्रातः 4:00 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक चर्चा हेतु उपलब्ध होगा।
जवाब देंहटाएंचर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर। सधन्यवाद।
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...।
लाजवाब अप्रतिम।
जवाब देंहटाएंशुभ दिवस ।
बहुत सुन्दर रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंकटते रहे शजर और बनते रहे मकाँ
जवाब देंहटाएंहर ही तरफ धुआँ है कहाँ आदमी रहे।
बहुत बेहतरीन। शानदार। वाह। लुत्फ़ ही लुत्फ़।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-11-2017) को "नागफनी के फूल" (चर्चा अंक 2791) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'