सबको राह दिखाने वाले
हे सूर्य! तुझको नमन
नित्य भोर नारंगी धार
आसमान पर छा जाते
खग मृग दृग को सोहे
ऐसा रूप दिखा जाते
आरती मन्त्र ध्वनि गूँजे
तम का हो जाता शमन
हर मौसम की बात अलग
शरद शीतल और जेठ प्रचंड
भिन्न भिन्न हैं ताप तुम्हारे
पर सृष्टि में रहे अखंड
उज्ज्वलता के घेरे में
निराशा का होता दमन
जितना वेग तपन का धरते
उतना ही नीरद भर देते
बूँदों में वापस आकर के
तन मन की ऊष्मा हर लेते
साँझ ढले पर्वत के पीछे
शनै शनै करते गमन
हे सूर्य! तुझको नमन !
ऋता शेखर 'मधु'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-09-2019) को "अपना पुण्य-प्रदेश" (चर्चा अंक- 3446) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-09-2019) को "अपना पुण्य-प्रदेश" (चर्चा अंक- 3446) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " मंगलवार 3 सितम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह !बेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, सूरज के हर कृत्य में कोई उदेस्य जरूर होता है।
जवाब देंहटाएंवाह।