सोमवार, 31 जुलाई 2017

कसम-लघुकथा

कसम

"ममा, आज स्कूल में हम सभी ने मोमबत्तियां जलाकर कारगिल के शहीदों को श्रद्धाजंलि दी। ममा, हमारा देश सबसे दोस्त बनकर रहना चाहता है फिर ये लड़ाइयाँ क्यो होती हैं।" आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले राहुल ने घर आते ही मां से बातें करने लगा।
"बेटा, हमारा देश अहिंसा का पुजारी है। हम किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते। " कहते हुए अंजलि ने टी वी ऑन कर दिया। वहाँ कारगिल युद्ध से संबंधित समाचार आ रहे थे। यह भी बताया जा रहा कि किस तरह देश के एक पत्रकार ने मनाही के बावजूद भारतीय छावनी के पास फोटो खींचने के बहाने फ़्लैश चमका दिया था और दुश्मन देश ने बम वर्षा कर दी जिसके कारण कई सैनिक मारे गए।
"ममा, हम दुश्मन देश से कमजोर हैं क्या।"
"नही, हम ताकतवर है साथ ही सहनशील भी।" ममा ने बताया।
"और इसी सहनशीलता का दंड हम सैनिकों की आहुति देकर चुकाते रहते है।" अचानक महेश आ गए थे कमरे में।
उन्होंने छोटे भाई की फोटो को माला पहनाया।


राहुल तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसे किसी ने नहीं बताया था कि तस्वीर उसके पिता की है। जब वह दुनिया मे आने वाला था तभी कारगिल युद्ध मे वे शहीद हो गए थे। उनके गम में उसकी माँ बहुत कमजोर हो गई और राहुल को जन्म देते समय चल बसी थी।
तब अंजलि ने बढ़कर दुधमुँहे को छाती से लगाया था और अपने बच्चे को जन्म न देने की कसम खाई थी।
-ऋता शेखर "मधु"

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

व्हाट्स-एप ग्रुप-लघुकथा

व्हाट्स-एप ग्रुप
व्हाट्स एप पर एक नया ग्रुप अवतरित हुआ-''हम साथ साथ हैं''
परिवार के सभी सदस्यों ने ग्रुप इंफो में जाकर देखा तो उसमें एक परिवार पूरी तरह से नदारद था| घर के सबसे समझदार और न्यायपूर्ण तरीके से सोचने वाले परिवार के बड़े दामाद आनंदी बाबू मुस्कुरा उठे|
उधर आनंदी बाबू की पत्नी लाली ने भी ग्रुप को देखा और पति के पास आकर बोली,''देखा न आपने,रोमा भाभी ने नया ग्रुप बनाया और उसमें मयंक को और उसके परिवार को शामिल नहीं किया''
''ठीक ही है न, कल मयंक ने भी तो एक समूह बनाया था-हमारा परिवार| उसमें उसने बड़े भइया,रोमा भाभी एव उनके बच्चों को नहीं रखा| तब तो तुमने कुछ नहीं कहा लाली|''आनंदी बाबू ने सहज तरीके से कहा|
''मयंक छोटा है, उसकी बातों का क्या लेना'' लाली ने भाई का पक्ष लेते हुए कहा|
'' तुम्हारे छह भाई- बहनों के भरे पूरे परिवार को भाभी ने बहुत समेट कर रखा और तुम सबकी ज्यादतियाँ और नादानियाँ बरदाश्त करती रहीं| मयंक की पत्नी ने आते ही परिवार में राजनीति का खेल शुरु कर दिया| बड़ी भाभी की लोकप्रियता से उसे इर्ष्या होने लगी थी| सबसे बुरी बात यह रही कि तुम सबने उसका साथ दिया| बड़े भइया और मयंक, दोनो तुम्हारे भाई हैं लाली| परिवार में एकता बनी रहे इसकी जिम्मेदारी सबकी होती है|''
''किन्तु भाभी ऐसा कैसे कर सकती हैं|''अभी भी लाली को विश्वास नहीं हो रहा था|
'' तुम्हारी भोली-भाली भाभी ने अब जाकर दुनियादारी सीखी है|''अर्थपूर्ण नजरों से देखते हुए आनंदी बाबू बोले और लाली कुछ न बोल सकी|
--ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

फ्रेंडशिप बैंड-लघुकथा

प्रेरणा

डोर बेल बजते ही आशा ने दरवाजा खोला|
''हैप्पी फ्रेंडशिप डे" कहती हुई छह सात महिलाएँ अन्दर आ चुकी थीं||
''अरे यार, यूँ आँखें फाड़ फाड़ कर क्या देख रही है आशु डियर| माना कि हम तीस सालों के बाद मिल रहे किन्तु इतने तो न बदल गए कि एक दूसरे को पहचान ही न सकें''|
आशु डियर...ये कहने वाली तो उसकी एक ही दोस्त थी मंजरी जो उसे हमेशा आशा के बजाय आशु ही कहा करती थी| चश्मे के भीतर से झाँकती उसकी आँखों ने सिर्फ मंजरी को ही नहीं बल्कि स्कूल की सभी सहेलियों को पहचान लिया जो आई थीं| उसकी इच्छा हुई कि वह सबके गले से लग जाए और स्कूल के दिनों वाली चुलबुली आशा बन जाए किन्तु वह ऐसा नहीं कर सकी|  उसके उदासीन चेहरे को लखती हुई मंजरी ने सबसे कहा, ''अरे, तुम सब खड़ी क्यों हो, फ्रेंडशिपबैंड बाँधो उसे|"
हाँ हाँ कहती हुई सभी ने उसका हाथ खींचकर बैंड से भर दिया| आशा अचानक उनके गले लगकर फूटफूटकर रोने लगी| मंजरी ने इशारे से सबको चुप रहने को कहा और कुछ देर तक आशा को रोने दिया| थोड़ी देर बाद जब वह शांत हुई तो उसने पूछा, ''तुमलोगों को मेरी खबर कैसे मिली"
मंजरी ने शांति से बताया,'' समय के झंझावात में हम सभी खो गए थे| जब फेसबुक पर आई तो सभी सहेलियों को ढूँढना शुरू किया| रोमा, नेहा, पूजा, अनामिका, पुतुल, उर्मिला सभी मिल गईं, एक तू न मिली| एक दिन फेसबुक पर मैंने तेरे भाई वीरेंद्र को देखा| उनसे ही पूछा तेरे बारे में|शादी होते की पति की मृत्यु होने से ससुराल वाले तुझे कितना भी मनहूस कहें , तू तो हम सबकी वही प्यारी चहकने वाली आशू है न| खुद को दुनिया से काटकर तू सबको कितना दुखी कर रही यह मैंने तब जाना जब तेरे भाई के आँसूओं में देखा| आशू, चल न, वीरेन्द्र और भाभी, बच्चे तेरा इंन्तेजार कर रहे| सबसे पहले एक अच्छे से होटल में चलते हैं, फिर थोड़ी शॉपिंग करेंगे | '' स्कूल के दिनों में दोनों फास्ट फ्रेंड हुआ करती थीं | मंजरी का मन रखने के लिए आशा तैयार होने लगी| मंजरी ने उसे पर्स में चुपके से एक राखी रखते देख लिया|
''एक बात और है आशु, ये सफेद साड़ी क्यों|''
''एक विधवा...'' इसके आगे आशा कुछ कहती तभी मंजरी ने उसके मुख पर हाथ रख दिया|
''ना, ऐसे नहीं बोलते| औरतें ईश्वर की अनुपम कृति हैं| एक विधवा भी बेटी, बहन और माँ होती है| उनके लिए अपनी वेशभूषा बदल दे''|
''अभी आई'' कहकर आशा अन्दर गई| जब वापस लौटी तो उसने आसमानी रंग की सिल्क की साड़ी पहनी थी| माथे पर छोटी सी बिंदी और हाथों में साड़ी से मेल खाती दो दो चूड़ियाँ थीं|
''ये हुई न बात, जल्दी चल|''
ज्योंहि दोनो बाहर निकलीं भाई वीरेन्द्र को देखकर रुक गईं| वीरेंद्र की आँखों में मंजरी के लिए कृतज्ञता झलक रही थी|
--ऋता शेखर 'मधु'

पिता की कोख-लघुकथा

पिता की कोख

सासू माँ के आने से तेजस खुश था| उसकी गर्भवती पत्नी मृणाल का ख्याल रखने के लिए अब कोई तो था घर में| जबसे उसे मृणाल की प्रेगनेंसी का पता चला था वह उसे घर में बिल्कुल भी अकेला नहीं छोड़ना चाहता था| उसकी माँ नहीं थी तो उसने खुद सासू माँ को फोन करके बुलाया था|

"मृणाल, भारी मत उठाना| मृणाल, ऑफिस से लौटते हुए क्या लाऊँ खाने के लिए| मृणाल, तुम्हें अच्छी अच्छी किताबें पढ़नी चाहिए| मृणाल, सुबह उठो तो सबसे पहले बाल गोपाल के कैलेंडर की ओर देखना| मृणाल, खूब खुश रहा करो| मृणाल , मम्मी से पूछकर लाभ वाले फल खाना,"तेजस की हिदायतें जारी थीं|

"उफ, अब बस भी करो तेजस, तुम ऑफिस जाओ|"

"अच्छा बाबा, जाता हूँ", कहकर तेजस गुनगुनाता हुआ चला गया|

''माँ, आपने देखा न, कितनी हिदायतें देते हैं तेजस," मृणाल माँ से बातें करने लगी|
'' बेटा, बच्चा माँ की कोख में रहता है और एक कोख पिता के पास भी होती है|'

'पिता की कोख', मृणाल समझ नहीं पाई|

"हाँ, पिता की कोख उसका मस्तिष्क है जहाँ से वह भी बच्चे को उतना ही महसूस कर रहा है जितना की तुम| वहीं से गर्भ में पल रहे के लिये अहसास ,सपने, परवाह और जिम्मेदारी जन्म लेती है," माँ ने मुस्कुराते हुए कहा|

'' ये है पिता की अनदेखी ममता...' सोचती हुई मृणाल शाम का बेसब्री से इन्तेजार करने लगी|

--ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 23 जुलाई 2017

रिमाइंडर-लघुकथा

रिमाइंडर
" मनीषा, एल आई सी की किश्त भरने का समय निकल गया। अब फाइन देना होगा। रिमाइंडर तो लगा दिया होता।"
मनीषा चाय बनाते बनाते रुक गई। उसने अमित की ओर देखा और एक फीकी हँसी हँस दी।
अमित को सहसा याद आ गया वह पार्टी वाला दिन जब उसने अपने दोस्तों से परिचय करवाते हुए कहा था" ये हैं हमारी श्रीमती जी जो सारे काम रिमाइंडर से ही करती है। साल बदलते ही सभी खास मौकों के लिए रिमाइंडर सेट कर देती हैं। मुझे लगता है आगे रिमाइंडर पर यह भी लगा देंगी की मैं ही इनका पति हूँ।"
और दोस्तों के ठहाको के बीच किसी ने उस अपमान की रेखा को नहीं देखा जो मनीषा के चेहरे पर उभरी थी।
अमित ने आज अचानक महसूस किया और स्वयं मोबाइल लेकर मनीषा के सामने खड़ा हो गया।
-ऋता

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

ताटंक छंद



ताटंक छंद

1 लावणी
मोहन के माथे केशों की, अवली बड़ी निराली है|
हौले हौले खेल खेल कर, पवन हुई मतवाली है|
थिरक रही अधरों पर बंसी,तन्मय झूम रही गइया|
मोहिनी छवि नंदलाला की, निरखतीं यशोमति मइया||


2 लावणी
रचकर लाली हाथों में तुम, ज़ुल्फ़ें यूँ बिखराती हो|
बादल की बूँदों से छनकर, इंद्रधनुष बन जाती हो|
चमका सूरज बिंदी बनकर, संगीत सुनाये कँगना|
करता जगमग तुलसी चौरा, तुम से ही चहके अँगना||

3 ताटंक
सीमा पर वह डटे हुए हैं, भारत की रखवाली में|
स्वर्ण बाल हैं भुट्टों के भी, कृषकों की हरियाली में|
सोच रहे जब देश के लिए, निज कर्तव्य निभा लेना|
लोक हितों की खातिर साथी, मन का स्वार्थ हटा देना||
--ऋता शेखर 'मधु'

ताटंक-16-14 पर यति...अन्त में गुरु गुरु गुरु

लावणी-16-14 पर यति... लघु लघु गुरु

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

आदर्श घर

आदर्श घर

डॉक्टर बन चुकी निकिता भाई की शादी में आई थी . उसका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जहाँ बेटा-बेटी का कोई भेदभाव न था| अच्छे संस्कारों के साथ बड़ी हुई थी .

सबने उसे सर-माथे पे बिठाया | वह भी पूरे घर में चहकी फिर रही थी| माँ कुलदेवता की पूजा में व्यस्त थी और निकिता कहती जा रही थी-

'माँ , हमारा घर कितना आदर्श है न! बेटा- बेटी में फर्क नहीं करता|'

पूजा के बाद प्रसाद बँटने लगा तो दादी की आवाज आई|

"बहू, सबसे किनारे वाले देवता का प्रसाद निक्की को न देना|"

"क्यों दादी" निकिता की आवाज में हल्की सी नाराजगी थी|

"निक्की बेटा, वो प्रसाद सिर्फ खानदान के बच्चे ही खा सकते हैं| वह तेरा भाई ही खा सकता है|"

अचंभित सी निकिता ने अपना बढ़ा हुआ हाथ पीछे खींच लिया|


--ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 19 जुलाई 2017

दोहे की दुनिया

दोहे

1
बहन रेशमी डोर को, खुद देना आकार |
चीनी राखी त्याग कर, पूर्ण करो त्योहार||
2
महकी जूही की कली, देखन को शुभ भोर
खग मनुष्य पादप सभी, किलक रहे चहुँ ओर
3
मन के भीतर आग है, ऊपर दिखता बर्फ़।
अपने अपनों के लिए, तरल हुए हैं हर्फ़।।
4
ज्ञान, दान, मुस्कान धन, दिल को रखे करीब।
भौतिक धन ज्यों ज्यों बढ़े, होने लगे गरीब।।
5
जब जब भी उठने लगा, तुझपर से विश्वास|
दूर कहीं लहरा गई, दीप किरण सी आस||
6
इधर उधर क्या ढूँढता, सब तेरे ही पास|
नारिकेल के बीच है, मीठी मीठी आस||
7
अफ़रातफ़री से कहाँ,होते अच्छे काम।
सही समय पर ही लगे,मीठे मीठे आम||
8
बिन काँटों के ना मिले, खुश्बूदार गुलाब|
सब कुछ दामन में लिए, बनो तुम आफ़ताब||
9
पावन श्रावण मास की, महिमा अपरम्पार।
बूँद बूँद है शिवमयी, भीगा है संसार।।.
10
जब जब पढ़ते लिस्ट में, लम्बी चौड़ी माँग|
नीलकंठ भगवान को,तब भाते हैं भाँग||
11
फूल खिलें सद्भाव के, खुश्बू मिले अपार।
कटुक वचन है दलदली, रिश्तों को दे मार।।

--ऋता

शनिवार, 1 जुलाई 2017

टैक्स के आतंक से मुक्ति- जी एस टी (GST)

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GST- Goods & Services tax.....

इसे good and simple tax के रूप में बताया जा रहा है|
30 जून और 1 जुलाई 17 की मध्यरात्रि को GST का लॉन्च समारोह संसद के सेन्ट्रल हॉल में हुआ जिसमें वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बताया कि एक राष्ट्र एक टैक्स- One nation one tax ही इसका उद्देश्य है और इससे टैक्स चोरी से राहत मिलेगी|
कर प्रणाली व्यवस्था आसान होगी|
केलकर ने 2003 मे एक ऐतिहासिक फैसला लिया था कि पूरे देश में एक तरह का टैक्स हो|
इसमें17 टैक्स और 22 सेस को खत्म किया गया|

प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा ---
यह व्यवस्था किसी एक सरकार की देन नहीं बल्कि सा़ँझा प्रयास का फल है|
जी एस टी की कुल18 बैठकें हुईं|
जी एस टी संघीय ढाँचे की मिसाल है|
जी एस टी लंबी परिचर्चा का परिणाम है|
सवा सौ करोड़ जनता साक्षी बनी|
आर्थिक एकीकरण होगा|
आइंसटीन ने कहा था- इन्कम टैस्क समझना सबसे कठिन काम |
गरीबों का खास ख्याल रखा गया है|
देश आधुनिक टैक्स व्यवस्था की ओर बढ़ रहा|
बीस लाख वाले कारोबारियों को कोई टैक्स नहीं देना पड़ेगा |
यह व्यवस्था इमानदारी का अवसर देगी|
यह सरल पारदर्शी व्यवस्था है|
कच्चा बिल और पक्के बिल का चक्कर खत्म हुआ|
विदेशी व्यापारियों को सुविधा मिलेगी|
आर्थिक से भी आगे सामाजिक क्रा़ंति है जी एस टी|
टैक्स पर टैक्स...टैक्स पर टैक्स से मुक्ति मिली|
यह सरल पारदर्शी व्यवस्था है|
इससे आर्थिक एकीकरण होगा|
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा...
14 वर्षों का सफर है जी एस टी का
रात के बारह बजे से जी एस टी लागू
दुनिया का सबसे बड़ा टैक्स सुधार
=============================
देश में कहीं भी सामान खरीदो, एक ही मूल्य लगेगा|
सबसे खुशी की बात है कि सभी पार्टियों ने इसे समर्थन दिया है|
ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 30 जून 2017

आ, अब लौट चलें...

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कहते हैं जीवन में कभी न कभी हम सब उन सभी चीजों से आकर्षित हो जाते हैं जो सहज उपलब्ध हो| जहाँ वाहवाही मिले वहाँ बार बार जाने की इच्छा होती है| त्वरित मिली प्रतिक्रियाएँ लुभाने लगती हैं और हम भूल जाते हैं उस पुश्तैनी मकान को जहाँ हमने बचपन गुजारा था| कुछ दिनों की चमक दमक के बाद पुराने संगी साथी याद आने लगते हैं और दिल बार बार कहने लगता है...आ , अब लौट चलें...या फिर...ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना...
ऐसा ही कुछ हुआ हम सभी ब्लॉगर्स के साथ...जब नेट की दुनिया में हमने कदम रखा तो मन के भीतर उमड़ते घुमड़ते विचारों को लिखने के लिए एक डायरी मिल गई ब्लॉग के रूप में| ब्लॉग पर एक सुविधा थी फौलोवर बनने की...तो जिनकी पोस्ट पसंद आने लगी उस ब्लॉग को फौलो करने लगे| जब भी उस ब्लॉग पर नई पोस्ट आती हमें सूचना मिल जाती और हम वहाँ टहल आते| एकाध कमेंट भी डाल देते और फिर जाकर देखते कि उन ब्लॉगर महोदय/ महोदया ने रेस्पॉंस दिया या नहीं| हमारे ब्लॉग पर भी लोग आने लगे और हम खुद को लेखिका समझने की भूल कर बैठेः)
कुछ ब्लॉग, एग्रीगेटर का काम करते और हमलोगों की जो पोस्ट उन्हें अच्छी लगती उसका लिंक एक स्थान पर इकट्ठा कर के पाठकों तक पहुँचाते| उनमें "चर्चा मंच" और "हलचल" उन दिनों प्रमुख हुआ करते थे| इससे page view भी बढ़ता और रचनाएँ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक चली जातीं| उस समय अच्छा से अच्छा लिखने की तीव्र लालसा रहती और सच कहें तो उस समय जो लिखी वह फिर नहीं लिख पाई| हम, बच्चों को अक्सर यह कहते हैं कि किसी भी चीज की लत बुरी होती है| पर जब बात खुद पर आई तो फेसबुक की लत लगने लगी और चाह कर भी हम उस लालसा को छोड़ नहीं पाए और रोजाना अपना कीमती वक्त फेसबुक को देने लगे इससे रचनकर्म पर बहुत प्रभाव पड़ा| जो भी विचार मन में आया वह मन की कोठरी में कैद न रहकर फेसबुक स्टेटस बनने लगा| जब हमने फेसबुक अकाउंट खोला तो जिन ब्लॉगर मित्रों को जानते थे उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया| छोटी कविताएँ पोस्ट करने लगे| फिर मित्रता अनुरोध आने लगे तो फटाफट स्वीकार भी की| लेकिन क्षेत्र कोई भी हो, कुछ खट्टे मीठे अनुभव भी हुए जिसे इग्नोर किया| व्हाट्स एप ने रही सही कसर पूरी की और सभी उसकी गिरफ्त में आने लगे| सबके पास मोबाइल और सोशल मिडिया का जुड़ाव बढ़ा| जहाँ पहले ब्लॉगर्स महीने में ज्यादा से ज्यादा पोस्ट डालने के लिए श्रम करते वहाँ अब महीनों तक इधर झाँकना भी बन्द कर दिया सबने| ब्लॉगर साथी फेसबुक पर दिखने लगे और हमारा ब्लॉग भूतबँगला बनने लगा |
एक दिन बुद्धत्व जैसा कुछ ज्ञान मिला तब लगा कि फेसबुक चौराहा है और ब्लॉग सुरक्षित घर जैसा| इधर कुछ महीने पहले से हमने पोस्ट फिर से डालना शुरु किया| तीन चार पोस्ट आकर शिड्यूल कर जाते जो समय समय पर स्वयम् प्रकाशित हो जाते| पहले जो एग्रीगेटर हमारी पोस्ट ले जाते उन्हे धन्यवाद देने जरूर जाते| बाद में उसमें भी सुस्ती होने लगी|
तो दोस्तो, फेसबुक के द्वारा मित्रता कायम रखें पर ब्लॉगिंग की ओर भी ध्यान दें| सार्थक बाते यहीं मिलेंगी|
पोस्ट लिखें...दूसरों की पोस्ट पर भी जाएँ...यहाँ लाइक का ऑप्शन तो नहीं है पर टिप्पणी तो कर ही सकते|
ब्लॉग पोस्ट को मनचाहा सजाएँ और लगाएँ| एक आह्वान था कि 1 जुलाई से सबके कदम पुनः ब्लॉग की ओर मुड़ें| इस आह्वान का मैं तहेदिल से स्वागत करती हूँ और समय प्रबंधन भी करना होगा कि कोई भी स्थान छूटे नहीं|
ब्लॉगर ऋता

गुरुवार, 22 जून 2017

यादें हरसिंगार हों

दोहे 
 1
दादी अम्मी टोकते, टोकें अब्बूजान
लगा सोलवां साल अब, आफत में है जान
2
महँगाई की मार से बिलख रहा इंसान
जीवनयापन के लिए आफत में है जान

 3
इधर उधर क्या ढूँढता, सब कुछ तेरे पास
नारियल के बीच बसी, मीठी मीठी प्यास

 4
यादें हरसिंगार हों, वादे गेंदा फूल
आस बने सूरजमुखी, कहाँ टिके फिर शूल
5
कड़ी धूप की लालिमा दिल में है आबाद
गर्मी में आती सदा गुलमोहर की याद
6
चुप रहना अद्भुत कला, जान न पाये आप
मनमोहन से सीख कर, मन में ही करिये जाप ऋता
7
 हृदय पुष्प को खोलकर, बोले अपना हाल
बिन गुलाल के मैं सखी, हुई शर्म से लाल
8 गुणीजनों के साथ हों, जब अच्छे संवाद
समझो माटी को मिला, उर्वरता का खाद
9
 नित प्रातः हरि नाम से, दिन को मिले मिठास
थाली को ज्यों गुड़ मिले, भोजन बनता खास
10
 कहो कौन किसके लिए जग में रोता यार
अपने अपने स्वार्थ में जीता है संसार
11
निज गुण के जो हैं धनी, झेलें नहीं अभाव
खुद से वह रखते परे, दूसरों का प्रभाव
-ऋता
==============================


कुण्डलिया ...

सावन आया झूमकर, नाचे है मन मोर
नभ में बादल घूमते, खूब मचाते शोर
खूब मचाते शोर, गीत खुशियों के गाते
तितली भँवरे बाग़, हृदय को हैं हुलसाते
मीठे झरनों का राग, लगे है सुन्दर पावन
नाचे है मन मोर, झूमकर आया सावन
-ऋता

================================

 हाइकु-

वृक्ष सम्पदा
हर मनु के नाम
एक हो वृक्ष

अश्व लेखनी
सरकारी कागज
दौड़ते अश्व
ऋता शेखर 'मधु'


रविवार, 18 जून 2017

प्रतिबिम्ब--कुछ भाव कुछ क्षणिकाएँ

बँधे हाथ

अपने वतन के वास्ते
गुलमोहर सा प्यार तुम्हारा
अनुशासन के कदम ताल पर
केसरिया श्रृंगार तुम्हारा
 

पत्थर बाजों की बस्ती में
जीना है दुश्वार तुम्हारा
चोट सहो तुम सीने पर
पर कचनारी हो वार तुम्हारा

हा! कैसा है सन्देश देश का
चुप रहकर शोले पी लेना
उन आतंकी की खातिर तुम
अपमानित होकर जी लेना।

अच्छी नहीं सहिष्णुता इतनी भी
रामलला को याद करो
कोमल मन की बगिया में
कंटक वन आबाद करो
-ऋता
============================

बुद्धत्व

मंजिल पर शून्य है
रे मन, सफ़र में ही रहा कर

संसार में
रोग क्यों है
शोक क्यों है
बुढ़ापा क्यों है
मृत्यु क्यों है
इस शाश्वत सत्य की खोज में
सिद्धार्थ को बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
क्यों है...इसका उत्तर सहज नहीं
और यदि ये सब है ही
तो सहज स्वीकार्यता ही
संसार में बुद्धत्व पाने का सरल मार्ग है
ये मार्ग सरल होते हुए भी सहज नहीं
जीवन में हर मनुष्य इनकी खोज में है
मन का बूद्ध हो जाना भी
शाश्वत सत्य है।
-ऋता

 ===================
प्रतिबिम्ब
 
सागर भी है
तलैया भी
गगन का प्रतिबिम्ब
दोनों में समाया
अशांत लहरो में
गगन भी अशांत सा
तलैये के मौन में
महफूज़ चाँद सितारे
-ऋता
====================

एक सवाल

मनु,
तू कौन है, क्या है?
एक आकार
एक आत्मा
एक भाव
एक सोच
एक मन
एक यात्री
एक रास्ता
एक मंजिल
एक नागरिक
एक धर्म
एक मानवता
एक मोह
एक त्याग
एक अभिलाषा
एक लिप्सा
एक क्रोध
एक भाषा
एक जनक
एक सार
एक तत्व
एक प्रेम
एक विरह
एक भोग
एक विलास
एक क्रिया
एक प्रक्रिया
एक प्रशंसा
एक आलोचना
एक सत्यवादी
एक चापलूस
एक वक्ता
एक श्रोता
एक अभिव्यक्ति
एक पीर
एक हास्य
एक गंभीर

मनु: सुन ले
तू एक व्यक्तित्व हूँ
उपरोक्त सारे गुणों से लबरेज
प्रभु की अनुपम कृति है।

=========================

उम्मीदें

उम्मीदें तो बीज हैं
उनकी अवस्था
सुसुप्त नहीं होती
बार बार अंकुरण
बार बार आघात
फिर भी कोंपल
झाँकने को आतुर
मुरझाने का सिलसिला
जाने कब तक चले
अंकुरण की प्रक्रिया
जारी रहती है
अनवरत
===========================


 ये जरूरी नहीं कि हमारे शुभचिंतक सिर्फ हमारे अपने रिश्तेदार या मित्र ही हों...कई शुभचिंतक वो भी होते है जो राह चलते मिल जाते है...
जैसे जब आप ट्रेन में हो और गंतव्य के पास से गाडी धीरे धीरे गुजर रही हो तब उतरने की चेष्टा करते हुए किसी का टोक देना...
जब फ्लाइट में थोड़े हेवी सामन के साथ आप अकेले हों तब किसी का हाथ बढाकर आपका बैग उतार देना...
जब आप बेध्यानी में पटरी क्रॉस करके प्लेटफॉर्म पर आते हुए उधर से आ रही ट्रेन न देख पाएं हो तो पब्लिक का एक साथ चिल्ला देना...
जब आधे किलोमीटर की दूरी तय करवाकर ऑटो वाले का पैसा न लेना...
और भी बहुत कुछ जो याद रह जाता है और उन अजनबियों को मन बार बार धन्यवाद के साथ दुआएँ भी देता है। यदि आप किसी की मदद के लिए हाथ बढ़ाते है तो बदले में बहुत कुछ अर्जित कर लेते है।

आज उन सभी को धन्यवाद।

 


शुक्रवार, 16 जून 2017

संस्कारहीन

संस्कारहीन

' देखिए जी, लेन देन पर हम थोड़ा बात कर लें, फिर बात पक्की ही समझें| आपकी बेटी बहुत संस्कारी है और हमें ऐसी ही लड़की की जरूरत है,' लड़के के पिता ने रोब लेते हुए कहा|

'जी, आप जैसा कहैं हम अपनी हैसियत के अनुसार देने के लिए तैयार हैं,' मद्धिम आवाज थी लड़की के पिता की|

'समान तो जो आप अपनी लड़की को गृहस्थी जमाने के लिए देंगे वो तो देंगे ही| हमें कैश के रूप में दस लाख दे दें, बस| बारातियों का स्वागत तो आप अच्छे से करेंगे ही| हमारा घर भी बहुत संस्कारी है, बिटिया को कोई तकलीफ न होगी' लड़के के पिता की आवाज थी|

'अंकल' अचानक लड़की बोल पड़ी, 'आप जो दस लाख लेंगे उसमें से मेरे लिएआठ लाख के जेवर तो बनवाएँगे ही जो संस्कारी घर में चलता है|'

'संस्कारहीन लड़की, लेन देन की बात करती है' लड़के के पिता भड़क गए|

'अब मैं क्या बोलूँ संस्कारहीनता पर...'लड़की ने मुस्कुराकर कहा और कमरे से बाहर निकल गई|

--ऋता


मंगलवार, 16 मई 2017

डील-लघुकथा

डील

कॉफी कैफे में बैठे मोहित और अनन्या औपचारिक बातचीत कर रहे थे। दोनों ही अच्छे पैकेज वाले मल्टी नेशनल कम्पनी में कार्यरत थे। शादी डॉट कॉम वाली साइट से दोनों परिवारों ने अपनी सहमति दी थी।चूँकि दोनों एक ही शहर में कार्यरत थे इसलिए अपने अभिभावकों की अनुमति से एक दूसरे को देखने और मिलने आये थे।

कॉरपोरेट स्टाइल में दोनों की बातें इस तरह से चल रही थीं जैसे कोई डील पक्की कर रहे हों।

"मोहित, आप खाना तो बना लेते होंगे।"

"बिलकुल बना लेता हूँ। "

"तो वीक में तीन दिन मैं और तीन दिन आप किचेन देख लेंगे"

" मैं पूरे वीक देख लूँगा।"

"सच ! बाहर से सामान कौन लाएगा।"

"मैं हूँ न", मोहित ने मुस्कुराते हुए कहा।

"अच्छा, शॉपिंग भी करवाएंगे।"

"वीकेंड में शॉपिंग भी और खाना भी बाहर खाएंगे।"

"एक बात और मोहित, आपके पैरेंट्स हमारे साथ ही रहेंगे क्या।"

माता पिता का एकमात्र पुत्र मोहित यह सुनकर मन ही मन आहत हुआ किन्तु बात सँभालते हुए बोला-

"जैसा तुम चाहोगी"

"मैं नहीं चाहती कि हमारी आजादी में कोई खलल हो।रोक टोक बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी।"

"ओके, फिर मैं अपने पेरेंट्स को नहीं रखूँगा "

अनन्या का चेहरा ख़ुशी से खिल गया।

"अनन्या, तुम्हारी सारी डील मुझे स्वीकार है। एक बात मेरी भी मान लो।"

"जी, बोलिये।"

"तुम्हे भी अपने पेरेंट्स के आने पर पाबन्दी लगानी होगी। मेरी यह बात मान्य है तो फिर रिश्ता पक्का समझो।"

मोहित गंभीरता से बोला।

"मोहित, पेरेंट्स वाली डील कैंसिल कर देते है।" अनन्या के चेहरे के बदलते भाव मोहित महसूस कर रहा था।

"ऐज यू विश" कहते हुए विजयी मुस्कान मोहित के चेहरे पर फ़ैल गई।

-ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 30 अप्रैल 2017

प्राथमिकता-लघुकथा

प्राथमिकता

"कुमार साहब, ये फाइलें हैं। आप सबकी सॉफ्ट कॉपी बनाकर अधिकारी को मेल कर दें, आज ही, अर्जेंटली।"
"लेकिन सर, कल मेरी बेटी का छेका है।आज बहुत सारे काम है। मुझे छुट्टी चाहिए थी।"
"कुमार साहब, अब ये आप तय करें कि सरकारी और घर के काम में आप किसे ज्यादा महत्व देंगे।"
कुमार साहब के सहयोगी ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में कहा, "यार कुमार,ये तो सरकारी काम है, हो ही जायेगा। तुम नहीं करोगे तो कोई और कर देगा।मैं तो कहता हूँ छुट्टी ले लो।"
"यही बात तो घर के काम पर भी लागू हो सकती है।"
कहते हुए कुमार साहब ने घर पर फोन लगाया।
"मैं आज छुट्टी नहीं ले सकता। सरिता, तुम संभाल लेना।"
-ऋता शेखर "मधु"

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

दोहे



1.
फूल शूल से है भरा दुनिया का यह पन्थ
चक्षु सीप में रच रहा बूँदों का इक ग्रन्थ
2.
ज्ञान डोर को थाम कर तैरे सागर बीच
तंतु पर है कमल टिका छोड़ घनेरी कीच
3.
पहन सुनहरा घाघरा, आई स्वर्णिम भोर
देशवासियो अब उठो, सरहद पर है चोर
4.
तपी धरा वैशाख की आया सावन याद
मन की पीर कौन गहे गुलमोहर के बाद
5.
शब्द चयन में हो रही जबसे भारीभूल
राई से पर्वत बने उड़े बात के धूल
6.
बेचैनी से घूमते हवाजनित ये रोग
राजनीति के पेंच में उलझे उलझे लोग
7.
क्या देना क्या पावना जब तन त्यागे प्राण
तड़प तड़प के हो गई याद मीन निष्प्राण

--ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

छंदमुक्त



1.पाने को किनारा

फैसला था
मझधार में जाने का
डुबकियाँ लगती रहीं
सीप की मोतियाँ मिलीं
अब किनारे की चाह
चाह न रही
ज्ञान की तली ने
ठहराव जो दिया
मिटने लगी थीं
अपेक्षाएँ
जगने लगी पिपासा
परमात्मा में लीन होने की

2. दुःख के पके पत्ते

दुःख के पके पत्ते गिरे
मन की संधियों से झाँकने लगीं
कोंपलें सुख की
वह तूफ़ान
जो ले गया दूर
जीवन के विक्षत पन्ने
उसी से बने दलदल में
एक सुबह फूले आशाओं के कँवल
चाँद भी लौटा अमा से जीतकर
मन के आकाश में
कुछ ही पल के तो रहे जीवन के सूर्य ग्रहण
मुश्किल वक़्त ने ही मुझे दिए
करुणा के स्वर
और कर्म निश्छल
दुःख की कुदाल से ही हटे
जीवन की जमीन के जिद्दी अधिग्रहण.

3.दरीचे

बीती बातों के खंडहर में
जाने अनजाने क्यों घूमना
भविष्य के दरीचे से
जरा झाँक कर देख लो
सुवासित उपवन है

4.जादू की छड़ी
आने दो
मन के बसंत पर
व्यथा का पतझर
तभी मिलेंगे
खुशियों के किसलय
अँखियों में
घनघोर बदरिया
छाने दो
पल की परी
जादूई बड़ी
एक बार क्षण भर को
मुस्कानों वाली
छड़ी परी से
पाने दो

5.गुलमोहर
गुलमोहर सी जिंदगी
वीरता के नारंगी साफे में
जीत लेती है
अग्नि मिसाइल छोड़ते हुए
शत्रु धूप को
ख्वाब के पुष्प से
सज जाता आसमान
गुलमोहर
सिर्फ कवि की कविता नहीं
डायरी है साहस की
जिसने पंखुरियों के पन्ने पर
उकेरे हैं
मानव जीवन
6.बदलाव

बचपन की चटाई पर
बिखरे बिखरे खेल
गुड़ियों का घर
रसोई में पकते
झूठमूठ के चावल
और झूठमूठ से
चटखारे ले ले कर
खाती हुई माँ
कि
सच में अब
प्रोत्साहित करने को
माँ नहीं होती
कि
लैपटॉप में रमी
गुड़िया खेलने वाली
बेटियाँ नहीं होतीं

7.सतोलिया

चटपटी चाट सी चटपटी यादें
मन के मैदान पर
सतोलिया सजाती हुई
उस अल्हड़ किशोरी की बाट देखती
जो खिलखिलाकर
गिरा देती
सारी गोटियाँ
और पुनः सजाने की धुन में
निरीह हो जाता
वह विश्वास
जो उसकी सम्पदा थी।

8.मेरी बात

मैं अच्छी हूँ
तुमने कहा
समाज ने माना

मैं बुरी हूँ
तुमने कहा
समाज ने माना

मैं अच्छी ही हूँ
यह मैं कहती हूँ
समाज को मानना होगा
और तुम्हे भी

समाज में मेरा अस्तित्व
मेरी इज्जत
सिर्फ मेरे कर्मों से है
तुम्हारे वचन ने नहीं


9.बँधे हाथ

अपने वतन के वास्ते
गुलमोहर सा प्यार तुम्हारा
अनुशासन के कदम ताल पर
केसरिया श्रृंगार तुम्हारा


पत्थर बाजों की बस्ती में
जीना है दुश्वार तुम्हारा
चोट सहो तुम सीने पर
पर कचनारी हो वार तुम्हारा

हा! कैसा है सन्देश देश का
चुप रहकर शोले पी लेना
उन आतंकी की खातिर तुम
अपमानित होकर जी लेना।

अच्छी नहीं सहिष्णुता इतनी भी
रामलला को याद करो
कोमल मन की बगिया में
कंटक वन आबाद करो
-ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 15 मार्च 2017

अब और नहीं...लघुकथा

अब नहीं...
घर में विवाह का माहौल था| सभी परिवार जन जुटे थे| हँसी ठिठोली चल रही थी| रसोई में उर्मिला जी खाना बनाने में तल्लीन थीं| बीच बीच में देवरानी रसोई में झाँककर औपचारिकता वश पूछ लेती,’’आपको कुछ चाहिए जिज्जी’’|
‘’नहीं, तुम बाहर सभी मेहमानों का ख्याल रखो’’
कहती हुई उनकी आवाज में गम्भीरता आ जाती क्योंकि वह जानती थीं कि उन्हे शहर से लाया ही गया है काम करने के लिए| वह विरोध भी नहीं कर सकती थीं| पति को अपने परिवार से अटूट लगाव था और पत्नी उनके परिवार की अवहेलना करे यह कतई बरदाश्त नहीं था|
दो वर्षों वाली टीचर्स ट्रेनिंग की डिग्री भी थी उनके पास| एक बार नौकरी के लिए नियुक्ति पत्र आया था किन्तु देवर और देवरानी ने कहा था,’’आपको नौकरी की क्या जरूरत है भाभी| सब कुछ तो आपका ही है|’’
‘सब सिर्फ काम के भागी हैं’ , यह सोचकर भी वे जवाब नहीं दे सकी थीं|
रसोई में बैठी चुल्हे में लकड़ी डालती हुई काठ की हाँडी में चढ़े चावल चला रही थीं| खदकते हुए चावल के साथ उनके विचार भी खदक रहे थे| सरकार ने पुराने ट्रेंड लोगों को उम्र से परे फिर से नियुक्त करने का फैसला लिया था| उन्होंने वहाँ आवेदन दिया हुआ था| गाँव आने के लिए जब वे घर से निकल रही थीं तभी डाकिया ने नियुक्ति पत्र का लिफाफा पकडाया था| पति ने देखा पर कुछ बोले नहीं| रसोई में वही नियुक्ति पत्र पड़ा था जो उनके विचारों में खदक रहा था|
भोजन का वक्त हो चुका था| देवरानी अन्दर देखने आई तबतक उर्मिला जी माँड पसा रही थीं| उत्सुकतावश देवरानी ने वह कागज उठा लिया| पढ़ते ही स्याह हो गई| फिर खुद को संयत करते हुए बोली, ‘’जिज्जी, अब इस उम्र में नौकरी....’’
‘’छोटी, देख , इस काठ की हाँडी में मैने चावल पकाया है| आगे यह हाँडी नहीं चढ़ेगी|’’
‘’जी, जिज्जी’’ समझदार देवरानी, जेठानी के स्वाभिमान से दीप्त चेहरे को पढ़कर चुप रह गई|
--ऋता

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

रे मन! तू भीग जा


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रे मन! तू भीग जा

रंगों में प्रीत की
हो रही बौछार है
रे! मन तू भीग जा
होली का त्योहार है


पुलक रहा है रोम रोम
हुलस रही है रागिनी
रुप रस गंध लिए
हुई धरा पावनी

बसंत बना जादूगर
मकरंद का अंबार है
रे मन! तू भीग जा
पुष्प की मनुहार है

गलियों की टोलियों में
बाल बाल कृष्ण लगे
गोपियाँ नटखट हुईं
पलाश भी हुए सगे

ठिठोलियाँ गूँज रहीं
अबीर की भरमार है
रे मन! तू भीग जा
फागुनी बयार है

हृदय पटल पर घूमती
मायूसियों को त्याग दो
कह रही हैं तितलियाँ
धमनियों को राग दो

भंग की ठंडई में
विचित्र चमत्कार है
रे मन! तू भीग जा
प्रेम की पुकार है
-ऋता शेखर ‘मध

गुरुवार, 2 मार्च 2017

ये मिजाज़ है वक़्त का



अपने गम को खुद सहो, खुशियाँ देना बाँट
अर्पित करते फूल जब, कंटक देते छाँट

ये मिजाज़ है वक़्त का, गहरे इसके काज
राजा रंक फ़कीर सब, किस विधि जाने राज

दुख सुख की हर भावना, खो दे जब आकार
वो मनुष्य ही संत है, रहे जो निर्विकार

दरिया हो जब दर्द का, रह रह भरते नैन
हल्की सी इक ठेस भी, लूटे दिल का चैन

उड़ती हुई सोन चिड़ी, जा उलझी इक झाड़
ज्यों फड़काती पंख वो, बढ़ती जाती बाड़

गर्म तवे पर गिर गया, एक बूँद जो नीर
नाच नाच विलुप्त हुआ, कह ना पाया पीर

तितली भँवरे ने किया, फूल फूल से प्यार
हुलस हुलस कहती फ़िजा, सुन्दर है संसार

न दिख रही हैं तितलियाँ, न है भ्रमर का शोर
सिमट रही है वाटिका, घर है चारो ओर

सौ सौ हों बीमार जब, का करि एक अनार
सौ कामों के बोझ से, दबा रहा इतवार
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सब सुनाने लगे दास्ताँ अपनी अपनी
रफ़्ता रफ़्ता मैं चाँद हो गया

वक्त हमारा इंतजार नहीं करता
हम वक्त का क्यों करे
जो ख्वाब अधूरे हैं
पूरा करने में जुट जाएँ
आगे ये न कहें -"वक्त ही नहीं मिला "
तब वही वक्त कहेगा-"मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ था"

काँटे मिलें या चाँटे
हमने तो बस
गुलाब ही बाँटे
मुक्तक

अंतस में हों भाव सुनहरे मुखड़े तभी सजा करते हैं
खिले गुलाबी रौनक से ही नैनन पात पढ़ा करते हैं
उबड़ खाबड़ रस्तो पर मनुज धैर्य से चलते जाना
बुलंद इरादों वाले ही चेहरों पर दृढ़ता गढ़ा करते हैं

गर गुलाब से जीवन की चाहत हो
दोस्ती काँटों से भी करना होगा
हुनर की खुश्बू फिजाओं में होगी
धैर्य की नदिया में भी बहना होगा
शे'र
बशर की हुनर में है पहचान उसकी
वो मिटकर भी दुनिया में आता रहेगा

किसे ये पता है किसे ये ख़बर है
वो किस किस को मरकर रुलाता रहेगा