ताटंक छंद
1 लावणी
मोहन के माथे केशों की, अवली बड़ी निराली है|
हौले हौले खेल खेल कर, पवन हुई मतवाली है|
थिरक रही अधरों पर बंसी,तन्मय झूम रही गइया|
मोहिनी छवि नंदलाला की, निरखतीं यशोमति मइया||
2 लावणी
रचकर लाली हाथों में तुम, ज़ुल्फ़ें यूँ बिखराती हो|
बादल की बूँदों से छनकर, इंद्रधनुष बन जाती हो|
चमका सूरज बिंदी बनकर, संगीत सुनाये कँगना|
करता जगमग तुलसी चौरा, तुम से ही चहके अँगना||
3 ताटंक
सीमा पर वह डटे हुए हैं, भारत की रखवाली में|
स्वर्ण बाल हैं भुट्टों के भी, कृषकों की हरियाली में|
सोच रहे जब देश के लिए, निज कर्तव्य निभा लेना|
लोक हितों की खातिर साथी, मन का स्वार्थ हटा देना||
--ऋता शेखर 'मधु'
ताटंक-16-14 पर यति...अन्त में गुरु गुरु गुरु
लावणी-16-14 पर यति... लघु लघु गुरु
वाह ,तीनों छंद एक से बढ़ कर एक .अंतिम तो शानदार
जवाब देंहटाएंमोहक ताटंक छंद रचना।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "कौन सी बिरयानी !!??" - ब्लॉग बुलेटिन , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-07-2017) को "शंखनाद करो कृष्ण" (चर्चा अंक 2675) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना बधाई हो
जवाब देंहटाएं