कई कटीली बेड़ियाँ हैं धर्म की और जात की
जीवन के शतरंज पर शह की और मात की
खिलखिलाते बहार पर निर्दयी तुषारपात की
भोले भाले मेमनों पर शेर के आघात की
इर्ष्या के भाव से जुटे हुए प्रतिघात की
सिसकियों में डूबी बेबस से हालात की
कोख में दम तोड़ती निरीह कन्या जात की
धन और मेधा में हो रहे पक्षपात की
कुर्सियों की होड़ में हो रही मुलाकात की
तेरी मेरी, मेरी तेरी के झगड़ों जैसी बात की
तोड़ना है बेड़ियों को सुकर्मों की तलवार से
खेना है देश की नइया सुविचारों की पतवार से
परवाह कभी करें नहीं पग लहुलुहान जो हो जाएँ
अविचल अडिग चाल से पुष्प राहों पे बो जाएँ |
....................ऋता
सुन्दर विचार .
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर रचना....
:-)
बिलकुल सच है कितनी ही बेड़ियाँ हैं इन सब से मुक्त होना ही होगा |
जवाब देंहटाएंsundar prastuti
जवाब देंहटाएंतोड़ना है बेड़ियों को सुकर्मों की तलवार से
जवाब देंहटाएंखेना है देश की नइया सुविचारों की पतवार से
परवाह कभी करें नहीं पग लहुलुहान जो हो जाएँ
अविचल अडिग चाल से पुष्प राहों पे बो जाएँ |
sunder likha hai aur sach bhi
rachana
खूबसूरत रचना है , बधाई !
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