मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

नेकियों का शहर

कह रहे इसे
नेकियों का शहर
बरपाया कौन
यहाँ पर कहर

काटे जाते
वन हरे हरे
ढोती नदिया
शव सड़े सड़े
सहमी सहमी सी चली हवा
सुबकी सुबकी सी लगी फिजा

मौन सनसनी
दिखे हर पहर

वन्य जातियाँ
खोजतीं निशाँ
भूले मयूर
मेघ आसमाँ
बुलबुल उदास शोक में समाँ
उठा सब तरफ धुआँ ही धुआँ

घुला साँस में
ज़हर ही ज़हर

बरपाया कौन
यहाँ पर कहर
कह रहे इसे
नेकियों का शहर
*ऋता शेखर 'मधु'*

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

एक मुट्ठी आसमान ....

एक मुट्ठी आसमान ....
कल रात सपने में मिला
मेरे हिस्से का आसमान
भगवान ने कहा, 
यहाँ जो भी सजाना चाहो
जैसे भी सजाना चाहो
वह तुम्हारी मर्जी है
मैंने झट से सूरज उठाया
उसे टाँगकर सोचा
अब कभी रात न होगी
फिर अगले ही पल लगा
हमेशा दिन रहेगा तो
हमेशा काम भी करना होगा
फिर आराम का क्या होगा?
मैंने उठा लिया चाँद भी
इसका होना जरूरी है
दिनभर का थका आदमी
चाँदनी की शीतलता में सोकर
तरोताजा हो जाएगा
आसपास पड़े सितारे
टिम टिम कर ठुनकने लगे
हम बच्चों को प्यारे
हमको बच्चे प्यारे
बड़े जतन से हमने
उनको भी टिकाया
तभी बादल का एक टुकड़ा
तरह तरह की आकृतियाँ बनाता
गुहार करने लगा अपने स्थान के लिए
रूई के फाहे जैसे मेघ को
आकाश पर बैठा दिया
ताकि बनी रहे रिमझिम फुहार
धरती को ठंढ़ाने के लिए
इस तरह हमने फिर से
वैसा ही आसमान बना लिया
जैसा उस प्रभु ने दिया था
जिनके सामने हम
शिकायतों की ढेर लगाते हैं
और माँगते हैं अपने लिए
एक मुट्ठी आसमान !!
*ऋता *

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

अभिवंचित...


अभिवंचित...

कुछ उनके दिल की सुनें
कुछ उनके मन को गुनें
त्रुटिपूर्ण तन मन से हम
चलकर कोई ख्वाब चुनें|

बन्द हैं दृगों के द्वार
स्याह है जिनका संसार
उनके अंतस-ज्योति में
संग चलें पग दो चार|

ब्रम्हा ने जिह्वा दी नहीं
दे देते पर नजर अपार
अभिव्यक्ति की अकुलाहट में
भर दें हम तो शब्द हजार|

भूलवश जो बधिर बने
देखें बोलें पर ना सुनें
इशारों ही इशारों में हम
अधरों पर हँसी भर दें|

किन्नर भी माँ की संतान
फिर क्यूँ ले आते मुस्कान
बोझिल मन को लें हम तोल
उनसे मीठे बोलें बोल|

बौनापन जो झेल रहे
उपहासों में खेल रहे
तन लघु मन के निर्मल
कभी उनसे न करना छल|

काया की अपूर्णता को
कभी समझना  अभिशाप
वामन अवतार ले विष्णु ने
गर्वित बलि को दिया संताप|

पीछे जो लौटे भूचक्र
वहाँ दिखेंगे अष्टावक्र
चारो वेदों के ज्ञाता रचते
गीता का अध्यात्म चक्र|

ईश्वर ने भरी जिनमे पूर्णता
क्यों भर जाती उनमे हीनता
नैन कद कंठ चक्षु के स्वामी
भाव भरे हैं मतलबी बेमानी

लम्बी काया सोच में बौने
नजर वाले करते औने पौने
पाई जिह्वा मीठा न बोलें
सुनने वाले मुँह न खोलें

ईश्वर जिनमें देते कमियाँ
भरते आत्मबल की कलियाँ
कभी देखकर मुँह न मोड़ो
दे कर प्रेम आशिष को जोड़ो
.........ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

वह प्यारी सी लड़की...

वह प्यारी सी लड़की...

वह प्यारी सी लड़की
भरना चाहती थी
आँचल में अपने
एक मुट्ठी आसमान
ब्रह्म से सांध्य निशा तक
पूर्व से पश्चिम दिशा तक
गगन का हर रंग
प्राची का हर छंद
इंद्रधनुषी ख्वाब
बटोर लाती आँचल में|

प्रात की मधुरिम बेला 
वेद ऋचा का गान लिए
पवित्र सी मुस्कान लिए
चकित देखती ध्रुवतारा
तोड़ लाती किरन एक
पिरो देती मुस्कुराकर
पंखुड़ियों पर बिखरे
कोमल शबनमी मोती
मखमली आँचल बनाती 
वह प्यारी सी लड़की|

भरी दोपहरी में
निज साया सिमटता
अपने ही आसपास
माँग लाती सूरज से
तपता सा लाल धागा
पिरो देती हुलसकर
दिव्य श्रम बिंदु
दिप दिप करता आँचल
देख देख इतराती
वह प्यारी सी लड़की|

शांत क्लांत साँझ नभ से
माँग लाती उधार
सुरमई सांतरी तार
टपक जाते स्निग्ध दृगों से
इंतेजार के मोती चार
मौन दर्द का साक्षी बन
मधुर मिलन नैनों में भर
झिलमिल झिलमिल
फैला लेती थी आँचल
वह प्यारी सी लड़की|

निशा की मूक बेला में
फलक से इकरार कर
चंदा से मनुहार कर
चट से तोड़ लाती
चाँदनी की ओढ़नी से
एक किरन रुपहली सी
टाँक कर तारे सितारे
अपने अम्बर आँचल पर
पुलकित हो जाती
वह प्यारी सी लड़की|

नव सृजन का प्रसव झेल
नींद के आगोश से निकल
नव प्रात की अँगड़ाई ले 
चहक जाती देखकर आँचल
अपरिमित विस्तार तले
गौरैया बुलबुल तितलियाँ
नन्हे छौने मृगों के
निर्भीक निडर सुरक्षित
उनकी नजरें उतारती
वह प्यारी सी लड़की|

अम्बर में फैले चार पहर|
कह जाते जीवन का सफर||
..............ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

सखी री..........

सखी री..........

भ्रमर ने गीत जब गाया
पपीहा प्रीत ले आया
शिखी के भी कदम थिरके
सखी री, फाग अब आया |
बजी जो धुन मनोहर सी
थिरक जाए यमुन जल भी
विकल हो गा रही राधा
सखी री मोहना आया|
कली चटखी गुलाबों की
जगे अरमान ख़्वाबों के
उड़ी खुशबू फ़िजाओं में
सखी ऋतुराज है आया|
गिरे थे शूल राहों में
खिले थे फूल बाहों में
ख़ता उसकी न तेरी थी
सखी बिखराव क्यूँ आया|
झुके से थे नयन उसके
रुके से थे कदम उसके
किया उसने इबादत भी
सखी री काम ना आया|
मिला जो वह बहारों में
लगा अपना हजारों में
जहाँ देखे वहाँ वो था
सखी ढूँढे नजारों में|
....ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

परिवर्तन


अपनी ही तपन
वह झेल न पाता
साँझ ढले 
सागर की गोद में 
धीरे से समाता
नहा धो कर 
नई ताजगी के साथ 
वह चाँद बन निकल आता
चाँदनी का दामन थाम
शुभ्र उज्जवल प्रभास से
जग को 
शीतल मुस्कान दे जाता
हाँ, साँझ ढलते ही 
वह प्रेमी  
प्रेमिका का 
उपमान बन
बच्चों का मामा बन जाता
तब वह रौद्र सूरज 
अपने दिल की मासूमियत 
माँ की लोरी में डाल
कितना भोला कितना प्यारा
कितना निश्छल कितना न्यारा
चन्द्रकिरन बन जाता|
हाँ, हमेशा कोई जल नहीं सकता
प्रचंड रूप में पल नहीं सकता
सूरज को चाँद बनना ही है
यही परिवर्तन है
यही सत्य है
यही शाश्वत है

...ऋता शेखर ‘मधु’

शनिवार, 22 नवंबर 2014

क़ातिल हूँ मैं


क़ातिल हूँ मैं
हाँ, क़त्ल करती हूँ
हर दिन क़त्ल करती हूँ
कुछ मासूम नन्हें ख्वाब का
कभी रुई के फाहे जैसे
सफ़ेद निश्छल स्वप्न का
मिटा देती हूँ
अनुभव के कठोर धरातल
पर उपज आए
आशाओ के इन्द्रधनुष को
हाँ दे देती हूँ विष
छोटी छोटी चाहतो को
चला देती हूँ खंजर
बड़े अरमानों पर
क़ि वजह क्या बताऊँ
कैसे बताऊँ
कि जन्मदाता के हाथों में
पंख कतरने वाली कैँची थी
कि हमकदम ने
हर कदम पर निगाह रखी
कि जिसे जनम दिया
अशक्त अरमानों की दवा
उसके हाथोँ में है
किसे कठघड़े में खड़ा करूँ
या कहाँ आत्मसमर्पण करूँ
ओ वामाओं', तुम भी सोचना
कहीँ तुम भी क़ातिल तो नहीं
सपनों की मज़ारों पर खिलती बहारेँ
हम भी ख़ुशी से उनको निहारें
एक दीप हर रोज़ रखते है जलाकर
घृत न सही डाल देते हैं अश्क
और जलता है दीप अनवरत...
रौशनी की खातिर मिसाल बनकर
*ऋता शेखर 'मधु'*

सोमवार, 10 नवंबर 2014

गुनगुनी सी धूप आई


गुनगुनी सी धूप आई
शरद बैठा खाट लेकर
मूँगफलियों को चटकता
मिर्च नींबू चाट लेकर

फुनगियों से हैं उतरती
हौले झूमती रश्मियाँ
फुदक रहीं डाल डाल पर
चपल चंचला गिलहरियाँ

चौपालों पर सजी बजीं
तरकारियाँ, हाट लेकर
गुनगुनाती हैं गोरियाँ
गेहुँएँ औ' पाट लेकर

छिल गईं फलियाँ मटर की
चढ़ी चुल्हे पर घुघनियाँ
क्यूँ होरियों से चल रहीं
ये पूस की बलजोरियाँ

बंधने लगीं लटाइयाँ
मँझे धागे काट लेकर
समेट रहीं परछाइयाँ
आगमन की बाट लेकर

गुनगुनी सी धूप आई
शरद बैठा खाट लेकर
*ऋता शेखर 'मधु'*
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रविवार, 26 अक्टूबर 2014

सुनो पथिक अनजाने तुम



 


कविताओं में "तुम " शब्द का प्रयोग कविता को व्यापक विस्तार देता है...उसी विषय पर आधारित रचना...

सुनो पथिक अनजाने तुम
लगते बड़े सुहाने तुम

कविताओं में आते हो
अपनी बात सुनाने तुम

जब भी आँखें नम होतीं
आ जाते थपकाने तुम

कभी ममता या ईश हो
दुआओं के बहाने तुम

शामिल होते मेघों में 
शीतलता बरसाने तुम

मन एकाकी जब होता
आते हो मुसकाने तुम

तुम ही तो सबल स्वप्न हो
होते नहीं पुराने तुम

*ऋता शेखर 'मधु'*

रविवार, 14 सितंबर 2014

काव्य का है प्यार हिन्दी


हिन्द का श्रृंगार हिन्दी
भाव का है सार हिन्दी

देव की नगरी से आई
ज्ञान का भंडार हिन्दी

लोकगीतों में बसी यह
है मधुर संसार हिन्दी

डाल पातें झूमती सी
गा रहीं मल्हार हिन्दी

छंद गजलों में महकती
काव्य का है प्यार हिन्दी

भाषणों संभाषणों में
मंच का आभार हिन्दी

बोलने की चाहते हैं
क्यों लगे फिर भार हिन्दी

बाँध देती एक सुर में
प्रांत को हर बार हिन्दी

गा रही सरगम बनी यह
है सफल उद्गार हिन्दी

शिल्प को जब गढ़ रही हो
तब लगे कुम्हार हिन्दी

साथ में उर्दू मिले तो
नज़्म का है हार हिन्दी

यह विदेशों में रमी है
सच बड़ी फ़नकार हिन्दी

मान्यता प्रतियोगिता में
कर रही उपकार हिन्दी

जा बसी हर गंध में यह
राज्य का उपहार हिन्दी
मूल संस्कृत में जमा के
है विटप विस्तार हिन्दी

विष्णु ऊँ ब्रम्हा विराजें
ईश का दरबार हिन्दी

लेखनी में जा बसी है
बन रही रसधार हिन्दी

भर रही है बाजुओं में
वीर का हुंकार हिन्दी

राह, माना है कँटीली
चल पड़ी साभार हिन्दी

शादियाँ त्योहार में भी
गूँजती सौ बार हिन्दी

अंग्रेजी जब से घुसी है
कर रही तकरार हिन्दी

जीत हासिल हम करेंगे
है विजय आसार हिन्दी

प्रेमियों की पात है ये
है मधुर इज़हार हिन्दी

शान से बोलें इसे तो
देश का उपहार हिन्दी

पीर इसकी भी सुनो तुम
माँगती अधिकार हिन्दी

अब विमानों में सजी है 
वक्त की रफ़्तार हिन्दी
*ऋता शेखर ‘मधु’*