गुरुवार, 30 अगस्त 2012

रोज सवेरे मेरे आँगन...




गौरैया               

रोज़ सवेरे मेरे आँगन
आती थी इक गौरैया|
कुदक-कुदक कर,
फुदक-फुदक कर,
दाना खाती वह गौरैया|
छोटी सी आवाज़ पर
चौकन्नी होती गौरैया|
चकित नज़र चहुँ ओर डालती
चपल चंचल थी गौरैया|
चिड़ा आए दाना लेने तो
चोंच  मारती  गौरैया|
नन्हें से बच्चे को लाती
वात्सल्य से भरी गौरैया|
खाना डालती बच्चे के मुख में
ममता की मारी गौरैया|
क्षुधा की पूर्ति हो जाती तो
चहचहा उठती थी गौरैया|
नहीं मिलते चावल के दाने
चूँ-चूँ कर माँगती गौरैया|
निकट जाने की कोशिश की तो
उड़ जाती थी गौरैया|


एक सुबह उलझी झाड़ी में
लंगड़ी हो गई गौरैया|
पंख टूट गए उसके
लाचार हो गई गौरैया|
किसी तरह आँगन में आई
चुपचाप खड़ी थी गौरैया|
दाना डाल दिया फिर भी
उदास पड़ी थी गौरैया|
हाथ बढ़ाया चुपके से
मुट्ठी में आ गई गौरैया|
प्यार से सहलाया उसे
सिमट गई वह गौरैया|
नज़र मिली उसकी नज़रों से
कृतज्ञ थी शायद वह गौरैया|               
                       ऋता शेखर मधु’ 

12 टिप्‍पणियां:

  1. नज़र मिली उसकी नज़रों से
    कृतज्ञ थी शायद वह गौरैया|
    बहुत ही बढिया ... भावमय करते शब्‍दों का संगम

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  2. गौरैया के दर्द को समझा
    धन्य हुई वह गौरैया

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  3. पहले निश् दिन दीखती,आँगन में गौरया
    जाने कहाँ गुम हो गई ,दिखाए न भईया,,,,,

    अहसास भरी एक अच्छी प्रस्तुति,,,,
    MY RECENT POST ...: जख्म,,,

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  4. जिस रफ़्तार से शहर बढ़ रहे हैं .. पेड़ कट रहे हैं .. गौरैया भी कहीं खोती जा रही है आँगन से ... भाव मय रचना है ...

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  5. ख्याल बहुत सुन्दर है और निभाया भी है आपने उस हेतु बधाई, सादर वन्दे,,,,,,,,,

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  6. बहुत प्यारी...हृदयस्पर्शी....

    सस्नेह
    अनु

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  7. हृदयस्पर्शी बहुत प्यारी सी सुन्दर. रचना..ऋता

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  8. बहुत प्यारी और मर्मस्पर्शी रचना..

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  9. बेहतरीन पंक्तियाँ..... भावपूर्ण रचना

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  10. बहुत प्यारी कोमल
    भाव लिए सुन्दर रचना...
    :-)

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