सोमवार, 23 अप्रैल 2012

चपल चंचल चोर




गूगल से साभार













ओ नार नवेली                                                           
तुम हो अलबेली,                                                                  
ओ छैल छबीली
करती अठखेली,
तुम चपल चंचल हो
तुम  चोर  भी  हो|

मुखड़ा को चुराया  चन्दा से                                            
बन  गई  तुम चन्द्रमुखी
आँखों को चुराया  हिरणों से
कहलाई  तुम  मृगनयनी
घटा  को  चुराया  मेघों  से
अपनी जुल्फों पे सजा लिया
पंखुड़ी को चुराया  गुलाबों से
अपने होठों पे  लगा  लिया
हंसों  की  पतली  ग्रीवा से
अपनी गर्दन को बना लिया
सफ़ेदी चुरानी थी  दूधों  से
बैठ उसी  में  नहा  लिया

इतनी सारी चोरी करके
बन गई तुम रुपवती
यौवन  की  तरुणाई  से
कवि की कविता बनी तुमयुवती

चोरियाँ फिर भी थमी नहीं
बात अभी भी  बनी  नहीं

ओ लावण्यमयी
तुम हो कोमलांगी,
बड़ी अलसाई
लेती अँगड़ाई,
चलने की जब नौबत आई
गजों से चुराया अलमस्त चाल
सबने कहा तुम्हें गज़गामिनी
बोलने की जब नौबत आई
कोयल का हो गया बुरा हाल
मीठे स्वर को चुरा लिया
बन गई तुम कोकिलकंठी
कमल की कमनीयता लेकर
कहलाई तुम कमलकामिनी

रुप यौवन गुणों से भरी आकृति
बनी सृष्टि  की  अनूपम  कृति|

आकृति के अन्दर था एक दिल
.धक्-धक् धड़का तो मन गया हिल
चाहत हुई  कोई  जाए  मिल
कुमार को देखा दिल गया  खिल

फिर से चोरी की इच्छा हुई
नैनों से तीर  चला  दिया
घायल हो गया  राजकुमार
फिर उसके दिल को चुरा लिया
सितारों  की  चोरी  करके
माँग को अपनी सजा लिया
फूलों से खुशबू चोरी कर
बगिया को अपनी महका लिया

ओ ममतामयी
तुम हो जननी,
स्नेह से भरी
प्यार की धनी
ममत्व को कहीं से नहीं चुराया
चीज़ थी तुम्हारी भरपूर लुटाया
इस ममता ने जग को लुभाया
वात्सल्य प्रेम को अमर बनाया|

ओ रुपसी
ओ गुणवती
ओ दयावती
क्रोध में चोरी करना नहीं
अग्नि की ज्वाला चुराना नहीं
ज्वालामुखी बनना नहीं
रौद्रमुखी  कहलाना नहीं|

           ऋता शेखर मधु


पूर्वप्रकाशित-परिकल्पना ब्लॉगोत्सव पर

10 टिप्‍पणियां:

  1. अरे इतनी चोरी करने के बाद भी सजा नहीं मिली :)
    सुन्दर कविता!!

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  2. आकृति के अन्दर था एक दिल
    .धक्-धक् धड़का तो मन गया हिल
    चाहत हुई कोई जाए मिल
    कुमार को देखा दिल गया खिल.... अरे वाह मेरा भी मन गया खिल

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  3. यह चोरी तो सार्थक चोरी है ... सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. भावों का सुन्दर प्रवाह ,बहना स्वाभविक ही है.बधाई स्वीकारें ।

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  5. वाह!!!!बहुत सुंदर भावों की प्रवाहमयी प्रस्तुति,..
    ‘मधु’जी बहुत२ बधाई

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....

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