खाने की मेज पर
थालियाँ लगी थीं
सजे थे उनमें
भाँति भाँति के व्यंजन
चावल पड़े थे
दो-एक रोटियाँ भी
कटोरी भर दाल
हरी सब्जियाँ भी
मनभावन रायता
चटपटे अचार भी
पापड़ सलाद
थोड़ी ‘स्वीट
डिश’ भी
ये सारे खाद्य पदार्थ
पेट में जाने थे
अकेला पेट
इतने सारे क्लिष्ट भोजन
इन्हें रक्त में समाना था
इसलिए विरल को सरल बनाना था
ठोस को तरल सा बहाना था
हमारा मन भी तो
पेट जैसा ही है
वहाँ भी परोसे जाते
भाँति भाँति प्रकार की
संवेदनाएँ
कड़वे या मीठे बोल
मार्मिक या मनभावन दृष्य
कठोर या स्नेहिल स्पर्श
पर ये मन
क्यूँ आत्मसात् नहीं कर पाता
क्लिष्ट संवेदनाएँ
पेट की तरह
क्यूँ हम नहीं बना पाते इन्हें
इतना सरल तरल कि
ये मन पर भार न छोड़ें
क्या मन का मेटाबॉलिज्म इतना कमजोर है ?
ऋता शेखर ‘मधु’
बहुत बढ़िया ऋता जी...........
जवाब देंहटाएंक्या कल्पना है........
वैसे मन वास्तव में बड़ा कमज़ोर होता है.........उसे तो कभी कभी कोमल भाव भी हजम नहीं होते....
सस्नेह.
अनु
चुगल खोर हर आदमी दोष पेट को देय,अपना आपा खोय .
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक प्रश्न किया है ... व्यंजनों को पचाने के लिए बहुत से पाचक रस होते हैं जो स्वत: ही निकलते रहते हैं ॥काश ऐसा ही कोई रस होता जो संवेदनाओं को भी तरल बना कर सरल कर देता ॥
जवाब देंहटाएंचुगल खोर हर आदमी दोष पेट को देय,अपना आपा खोय .
जवाब देंहटाएंफिर भी कहा यही जाता है इसके पेट में कोई बात नहीं पचती .हैं न शातिर दिमाग .
रविवार, 22 अप्रैल 2012
कोणार्क सम्पूर्ण चिकित्सा तंत्र -- भाग तीन
कोणार्क सम्पूर्ण चिकित्सा तंत्र -- भाग तीन
डॉ. दाराल और शेखर जी के बीच का संवाद बड़ा ही रोचक बन पड़ा है, अतः मुझे यही उचित लगा कि इस संवाद श्रंखला को भाग --तीन के रूप में " ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं चदरिया " वाले अंदाज़ में प्रस्तुत कर दू जिससे अन्य गुणी जन भी लाभान्वित हो सकेंगे |
वीरेंद्र शर्मा(वीरुभाई )
http://veerubhai1947.blogspot.in/
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंपर ये मन
जवाब देंहटाएंक्यूँ आत्मसात् नहीं कर पाता
क्लिष्ट संवेदनाएँ
पेट की तरह
क्यूँ हम नहीं बना पाते इन्हें
इतना सरल तरल कि
ये मन पर भार न छोड़ें
सटीक बिम्ब लेकर रची बेहतरीन रचना
बहुत ही सुन्दर !!
जवाब देंहटाएंmetabolism का psychic analog बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया आपने...
सादर
बढ़िया प्रस्तुति -चंचल मन पर ।।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ....
जवाब देंहटाएंचटपटी और स्वादिष्ट पोस्ट के लिए आभार !
पानी कहाँ है ??
पेट की भी सीमा होती है तो मन की होगी न
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थकता लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंवाह!!!!बहुत ही सुंदर प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 19 -04-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....आईने से सवाल क्या करना .
वाह मधुजी ..बिलकुल हटकर सोच ...और बिम्ब ...मज़ा गया आपकी रचना पढ़कर !!!!!
जवाब देंहटाएंवाह मधुजी ..बिलकुल हटकर सोच ...और बिम्ब ...मज़ा गया आपकी रचना पढ़कर !!!!!
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti....
जवाब देंहटाएंवाह ..गज़ब की सोच है.
जवाब देंहटाएंयूँ पेट भी एक सीमा के बाद विद्रोह सा कर देता है और मन भी.
संगीता जी कि टिप्पणी भी सार गर्भित लगी.
bahut prateekatmak prastuti. acchhi seekh deti hui.
जवाब देंहटाएं'मन के मते न चालिये ,छाँड़ि जीव की बान ,
जवाब देंहटाएंताकू केरे सूत ज्यूँ ,उलटि अपूठा आन !'
- कब से कबीर जी कह रहे हैं ,कोई सुने भी!
'मन के मते न चालिये ,छाँड़ि जीव की बानि ,
जवाब देंहटाएंताकू केरे सूत ज्यूं,उलटि अपूठा आनि!'
- यही तो कबीर सा. कब से कह रहे हैं कोई सुने भी !
भाँति भाँति प्रकार की
जवाब देंहटाएंसंवेदनाएँ
कड़वे या मीठे बोल
मार्मिक या मनभावन दृष्य
कठोर या स्नेहिल स्पर्श
पर ये मन
क्यूँ आत्मसात् नहीं कर पाता
क्लिष्ट संवेदनाएँ
पेट की तरह
क्यूँ हम नहीं बना पाते इन्हें
इतना सरल तरल कि
ये मन पर भार न छोड़ें
क्या मन का मेटाबॉलिज्म इतना कमजोर है ?... kya baat kahi hai aapne ... bahut khoob ...