बुधवार, 19 दिसंबर 2012

हम भी निहाल हो जाएँ



आज गगन से उतरी
शरद की धूप सुनहरी
कुदक फुदक कर भाग रही
जैसे थी कोई गिलहरी
कभी मुंडेर पर चढ़ती
कभी पेड़ों पर छुपती
लुका-छिपी के खेल में
बीत गई थी दुपहरी
ढोल की ढम-ढम लेकर
आई अनाथों की टोली
गूँज उठी थी कायनात में
व्याकुल सी स्वर-लहरी
निर्दोष-से मासूम मुख पर
छाई थी वेदना गहरी
कहाँ फरियाद करें अपनी
नहीं थी कोई कचहरी|

चलो
इक मुठ्ठी धूप चुराकर
उनपर हम बिखराएँ
हँसी के कुछ बीज को
उनके खेतों में बो आएँ
ममता का आँचल फैला
उनके सिर पर लहराएँ
कुछ मिश्री-सी लोरियाँ
गुनगुनाकर उन्हें सुनाएँ
कुछ रिमझिम-सी चाँदनी
उनके सपनों में बरसाएँ
कुछ फूलों की खुश्बू ले
उनकी गलियाँ महकाएँ
खिली-खिली मुस्कान पर फिर
हम भी निहाल हो जाएँ|
ऋता शेखर मधु

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति

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  2. गरीबी माहौल में पल रहा नन्हे बच्चों की बेदना का सुन्दर चित्रण किया है, सत्य को बयां करती मार्मिक रचना

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  3. बहुत खुबसूरत भाव उम्दा रचना..

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  4. सुंदर प्रस्तुति..बधाई।।।

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