आज गगन से उतरी
शरद की धूप सुनहरी
कुदक फुदक कर भाग रही
जैसे थी कोई गिलहरी
कभी मुंडेर पर चढ़ती
कभी पेड़ों पर छुपती
लुका-छिपी के खेल में
बीत गई थी दुपहरी
ढोल की ढम-ढम लेकर
आई अनाथों की टोली
गूँज उठी थी कायनात में
व्याकुल सी स्वर-लहरी
निर्दोष-से मासूम मुख पर
छाई थी वेदना गहरी
कहाँ फरियाद करें अपनी
नहीं थी कोई कचहरी|
चलो
इक मुठ्ठी धूप चुराकर
उनपर हम बिखराएँ
हँसी के कुछ बीज को
उनके खेतों में बो आएँ
ममता का आँचल फैला
उनके सिर पर लहराएँ
कुछ मिश्री-सी लोरियाँ
गुनगुनाकर उन्हें सुनाएँ
कुछ रिमझिम-सी चाँदनी
उनके सपनों में बरसाएँ
कुछ फूलों की खुश्बू ले
उनकी गलियाँ महकाएँ
खिली-खिली मुस्कान पर फिर
हम भी निहाल हो जाएँ|
ऋता शेखर ‘मधु’
बहुत सुंदर भाव ....
जवाब देंहटाएंवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंगरीबी माहौल में पल रहा नन्हे बच्चों की बेदना का सुन्दर चित्रण किया है, सत्य को बयां करती मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खुबसूरत भाव उम्दा रचना..
जवाब देंहटाएंhttp://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_19.html
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा भाव,सार्थक प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंrecent post: वजूद,
सुंदर प्रस्तुति..बधाई।।।
जवाब देंहटाएं