बह्र 1222-1222-1222-1222
काफ़िया
- आरा
रदीफ़
- है
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तसव्वुर
में छिपे थे जो नजारों में उतारा है
जरा
इतना तो कह दो जान तुझपे आज वारा है
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किसी
की ख्वाहिशों में तुम सदा शामिल बने रहते
कभी
यह देखना तुम बिन पिता कितना बिचारा है
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सवालों में घिरे रहकर कहाँ तक तुम
भी जाओगे
तग़ाफ़ुल में रहे हरदम लगे किसको
ये प्यारा है
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चले जाते जहाँ से जो चले आते हैं
यादों में
न समझें हाल दिल का वो उन्हें कितना पुकारा है
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कहानी अब पुरानी है परी तितली गुलाबों की
कि दादी और नानी से हुआ अब तो किनारा है
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गिरह
हमें अदना समझना मत हमीं से है
जमाना ये
हमारी उम्र कम है पर तजुर्बा ढेर
सारा है
ऋता शेखर ‘मधु’
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 17-09-2015 को चर्चा मंच के अंक चर्चा - 2101
जवाब देंहटाएंमें की जाएगी
धन्यवाद
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 17-09-2015 को चर्चा मंच के अंक चर्चा - 2101
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धन्यवाद
आप न भी कहें तो भी आपका तजुर्बा आपकी भाषा से बयान हो रहा है बेहतरीन
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