बुधवार, 9 सितंबर 2015

वो रस्मो रिवाजें निभाने की रातें

बह्र 122-122-122-122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
काफ़िया- आने
रदीफ़- की रातें
वो रस्मो रिवाजें निभाने की रातें
है चारो तरफ मुस्कुराने की रातें
कहीं छा रही है पपीहे की सरगम
कहीं जाफ़रानी मुहब्बत की रातें
कुबूली गई है किसी की इबादत
सजी मंदिरों में दुआओं की रातें
बहुत रोक कर के रखे थे ये आँसू
सुना जब शहीदों के जाने की रातें
हमारे घरों में झरोखे सुनाते
फलक पे सितारे गिनाने की रातें
जो भरती थी दादी अँचारों से बरतन
वो चुपचाप जाकर चुराने की रातें
वो आती पिता से छुपाने की रातें
बहाने बनाकर बचाने की रातें
सदा टोकते बात बेबात में जो
सुनाने लगे बुदबुदाने की रातें
*ऋता शेखर मधु*

2 टिप्‍पणियां:

  1. कहीं छा रही है पपीहे की सरगम
    कहीं जाफ़रानी मुहब्बत की रातें
    कुबूली गई है किसी की इबादत
    सजी मंदिरों में दुआओं की रातें

    बहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल ,उम्दा पंक्तियाँ ..

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियाँ उत्साहवर्धन करती है...कृपया इससे वंचित न करें...आभार !!!