बह्र 122-122-122-122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
काफ़िया- आरे
रदीफ़ - न होते
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मतला-
परिंदे कभी भी पुकारे न होते
धरा पर अगर ये सवारे न होते
हुस्न-ए-मतला-
ये संसार हम भी सँवारे न होते
अगर साथ तुम यूँ हमारे न होते
अशआर-
न होती अगर गाँव में बैलगाड़ी
कसम तीसरी के नजारे न होते
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सियासत हमारी हिफ़ाजत करे तो
यहाँ हम कभी भी बिचारे न होते
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हवा पेड़ पौधे हँसी बन के रहते
धुआँ पैर अपना पसारे न होते
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लहर यूँ न उठती समंदर में इतनी
फलक चाँद को जब पुकारे न होते
गिरह-
उदासी भरी रात तन्हा ही रहती
अगर आसमाँ में सितारे न होते
*ऋता शेखर 'मधु'*
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-09-2015) को "सवेरा हो गया-गणपति बप्पा मोरिया" (चर्चा अंक-2110) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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