बह्र 122-122-122-122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
काफ़िया- आरे
रदीफ़ - न होते
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मतला-
परिंदे कभी भी पुकारे न होते
धरा पर अगर ये सवारे न होते
हुस्न-ए-मतला-
ये संसार हम भी सँवारे न होते
अगर साथ तुम यूँ हमारे न होते
अशआर-
न होती अगर गाँव में बैलगाड़ी
कसम तीसरी के नजारे न होते
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सियासत हमारी हिफ़ाजत करे तो
यहाँ हम कभी भी बिचारे न होते
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हवा पेड़ पौधे हँसी बन के रहते
धुआँ पैर अपना पसारे न होते
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लहर यूँ न उठती समंदर में इतनी
फलक चाँद को जब पुकारे न होते
गिरह-
उदासी भरी रात तन्हा ही रहती
अगर आसमाँ में सितारे न होते
*ऋता शेखर 'मधु'*
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