मंगलवार, 18 सितंबर 2018

पसंदगी की रेंज

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‘हलो, मिस्टर वर्मा, मैने शादी डॉट कॉम पर आपके पुत्र के बारे में पढ़ा| आपको मैं अपनी बेटी की आई डी भेजती हूँ| आप देख लें और पसन्द आए तो हमलोग रिश्ते के बारे में सोच सकते हैं,’ ऊधर से मधुर आवाज में एक महिला बोल रही थीं|

‘जी, बताइए, मैं अपनी ओर से देख ही लेता हूँ क्योंकि अभी ऑनलाइन हूँ| आप चाहें तो कुछ देर लाइन पर बनी रह सकती हैं,’ वर्मा जी ने कहा और साथ ही दिए गए आई डी पर क्लिक भी किया| वहाँ एक प्यारी सी लड़की मोहक मुसक्न से सजी दिख रही थी| पूरी प्रोफ़ाइल देखने के बाद वर्मा जी ने कहा’’, मैडम,लड़की मुझे तो पसन्द आ रही| अब आप अपनी बिटिया का मोबाइल नम्बर दीजिए|’’

‘क्या !,’उधर से अचंभित स्वर उभरा|

‘देखिए मैडम, वह जमाना गया जब माता पिता शादियाँ तय करते थे और बाद में बच्चों की राय ली जाती थी| बच्चे भी ज्यादा विरोध नहीं करते थे| अब बच्चे चुनाव करते हैं, बाद में माता पिता की राय ली जाती है| आप बिटिया का नम्बर दें, मैं अपने पुत्र आशु को दे दूँगा| अपनी सुविधा से दोनों बात कर लेंगे| यदि दोनों ने एक दूसरे के विचारों को पसन्द किया तो फिर हमलोग आगे की बात कर लेंगे| दोनों ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में उच्च पदों पर हैं| उनकी पसन्द ही सर्वोपरि है,’ थोड़े से आहत स्वर में मिस्टर वर्मा बोल रहे थे|

इसके पहले भी दो जगहों पर बात आगे बढ़ी थी| एक जगह लड़की ने छोड़ा क्योंकि उसे घर में किसी भी बड़े बुज़ुर्ग को रखना स्वीकार्य नहीं था| एक जगह लड़के ने छोड़ा क्योंकि लड़की ने अँग्रेजी स्कूल से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी| मिस्टर वर्मा के अनुसार ये दोनों ही बातें कोई मायने नहीं रखती थीं|

“लड़की किसी के साथ नहीं रहना चाहती तो न रहे| समय के साथ और जरूरतों के अनुसार स्वयं सब ठीक हो जाता है| हर बात को गणित की तराजू पर तौलने से क्या डंडी सीथी मिलेगी ? नहीं न, पहले की शादियों में सामंजस्य बिठा ही लिया जाता था|”

“लेकिन पापा, हम सामंजस्य क्यों बिठाएँ| जब विचार ही नहीं मिलेंगे तो साथ कैसे रहेंगे,”वर्मा जी किसी भी दलील से पुत्र को नहीं समझा पाए|

‘आशु, जिस लड़की ने अँग्रेजी स्कूल से शिक्षा नहीं पाकर भी अपनी मेहनत के बल पर इतनी अच्छी नौकरी पाई है उसे तुम कमतर कैसे आँक सकते हो,’ उस दिन भी पिता पुत्र में वैचारिक मतभेद हो गया था| बाद में पिता ने ही चुप्पी का सहारा लिया|

मन में घुमड़ते हुए विचारों के समंदर में डूबे मिस्टर वर्मा यह भूल गए कि वह फ़ोन पर हैं|

“जी, मैं नम्बर दे देती हूँ,” यह सुनकर उनकी तन्द्रा टूटी|

उन्होंने नम्बर नोट किया और व्हाट्स एप पर आशु को भेज दिया| तुरन्त उभरी दो नीली रेखाओं ने संदेश पढ़ लिये जाने की चुगली कर दी| पहले इस तरह के संदेश पर आशु बिना विलम्ब के फ़ोन करता था किन्तु इस बार इन्तेज़ार के बाद भी उसने फ़ोन नहीं किया|

‘ अच्छा ही है, स्वयं बात कर लेगा तो बताएगा’, यह सोचकर वर्मा जी अपने काम में व्यस्त हो गए|

हर दिन बातें होतीं आशु से, पर उस लड़की के बारे में न पिता ने पूछा और न ही पुत्र ने बताया| एक दिन आशु ने कहा,”पापा, मैं एक महीने से लगातार उस लड़की से बात कर रहा हूँ| लगभग सभी विषयों पर हमारे विचार मिलते हैं| मुझे लगता है कि अब हमें आमने-सामने एक दूसरे से मिल लेना चाहिए| आप उसकी माँ को कहिए कि वह भी आ जाएँ और आप भी चलिए|”

सीधे सपाट शब्दों में कही गई बात वर्मा जी को अच्छी लगी| बेकार की संवेदनाओं में बहकर तो हमारी पीढ़ी बात करती थी| घर में ग़लत को कभी ग़लत कहने की हिम्मत नहीं होती थी|

दिन , समय, स्थान निश्चित किया गया| नियत समय पर सभी पहुँच गए| लड़की जैसी फ़ोटो में थी वैसी ही दिख रही थी| कुछ देर तक बातें हुई , उसके बाद आशु और वह लड़की थोड़ा अलग हट कर बातें करने लगे| वर्मा जी और लड़की की माँ ने तबतक विवाह की सारी रूपरेखा तय ली| घर में मण्डप सजेगा, शहनाइयाँ बजेंगी, इसकी प्रसन्नाता दोनों अभिभावकों को आह्लादित कर रही थी|

थोड़ी देर बाद दोनों वापस आ गए| दोनों के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ साफ दिख रही थीं| वर्मा जी का दिल धड़क उठा| लक्षण ठीक नहीं लग रहे थे|

“पापा, अभी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकते| मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता| यदि हमारे देश में कुछ कमी है तो हम सभी मिलकर सुधार सकते हैं| देश को हम सभी की जरूरत है| ये क्या बात हुई कि पढ़े लिखे हैं अपने भारत में और सपनों का घर सजाएँ विदेश की धरती पर| यह मुझसे नहीं होगा|”

लड़की सिर झुकाए सुन रही थी| उसने कुछ नहीं कहा| माँ भी कुछ कह पाने में असमर्थ थीं|

इस बार मिस्टर वर्मा ने पुत्र की पीठ को सराहना के भाव से थपथपा दिया| आज पुत्र को वह गर्व भरी दृष्टि से देख रहे थे| पूर्व के मतभेद की दीवार गिर चुकी थी|

औपचारिक अभिवादन के बाद सभी जाने के लिये दरवाजे की ओर बढ़े| आशु जल्दी ही वहाँ से निकल जाना चाहता था| उसका मन अपने आप से ही क्षुब्ध था| बातें करने के दौरान उसने कल्पना भी नहीं की थी कि विदेश में बस जाने का प्रस्ताव भी रखा जा सकता है वरना वह पहले ही नकार देता| उसका गणितीय समीकरण गलत साबित हो गया था पर पिता की थपथपाहट से कुछ शांति अनुभव कर रहा था|

“आशु, मैं तो बस तुम्हारी परीक्षा ले रही थी| मैं भी अपने देश से उतना ही प्यार करती हूँ जितना तुम|”

अचानक आई इस आवाज पर आशु ने पलट कर देखा| लड़की मुस्कुराती हुई खड़ी थी| इधर समधी समधन एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे थे|

-ऋता शेखर “मधु”

2 टिप्‍पणियां:

  1. समय की जरूरत के हिसाब से सटीक कहानी। हम इस सब से कितनी दूर हैं अभी तक तो पता नहीं कुछ साल बाद पता चल ही जायेगा :)

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  2. सही कहानी। व्हाट्सप्प वाली बात मेरे साथ हो रही है। बात सही है।ताम-झाम लेकर मिलने का कोई औचित्य नहीं। आखिर में ट्विस्ट सही रखा आपने। हाँ, भाषा और पढ़ाई के माध्यम के कारण किसी को न कहना कुछ जचता नहीं है।बहरहाल, सुन्दर प्रासंगिक कहानी।

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