ठोस रिश्ता
“अब मैं रिया के साथ नहीं रह सकता| उसका रोज रोज देर से घर आना
मुझे पसंद नहीं| नौकरी करने का मतलब यह नही कि घर को वह नेग्लेक्ट करे|”
“नहीं बेटा, ऐसा मत सोचो| रिया एक समझदार लड़की है| वह काम के
प्रति वफादार है| जब हमने नौकरी वाली बहु लाई है तो हमें उसकी मजबूरी भी समझनी
चाहिए| | एक तो उसे नौकरी का तनाव है , उसपर तुम्हारा यह रुख कहीं सब कुछ बिखरा न
दे| इसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है, ”माँ ने बेटे अंशुल को समझाना चाहा|
“मगर माँ, अब मुझसे बिल्कुल बरदाश्त नहीं होता| रिश्तों में
कड़वाहट आने लगे तो अलग हो जाना ही अच्छा है| मैं तलाक की अर्जी देने जा रहा हूँ|”
“तो ऐसा करो,तलाक का एक कागज मेरे लिए भी ले आना| मैं भी
तुम्हारे पापा से तंग आ चुकी हूँ| उनका हर समय घर से बाहर रहना मेरे भी बरदाश्त से
बाहर है| सारी गृहस्थी का बोझ मैं अकेले ही क्यों उठाऊँ|”
अंशुल के जाते हुए कदम थम गए| वह सीधे अपने कमरे में गया और पनी
दो साल की बिटिया को प्यार करने लगा|
---ऋता शेखर ‘मधु’
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "आदिशक्ति" (चर्चा अंक-2482) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही है ....रिश्तों को निभाने के लिए धैर्य और समझदारी ज़रूरी है .
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