आज मैं श्रीरामकथा की छठी कविता लेकर प्रस्तुत हूँ| आपकी छोटी से छोटी प्रतिक्रिया भी मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं और मुझमें नए उत्साह का संचार करती है|
अहिल्या की श्राप-मुक्ति
मान रखा मुनि विश्वामित्र का, यज्ञ पूर्ण करवाए दोऊ भाई|
सूर्यवंशी कुल की मर्यादा रखी, क्षत्रिय धर्म उन्होंने निभाई||
सर्व कार्य जब हो गए पूर्ण, विप्र आनन्दित हुए बहुत|
वापस आए निज आश्रम को, राम और लक्ष्मण सहित||
ऋषि नित पौराणिक कथा सुनाते, राम मन ही मन मुस्काते|
अन्तर्यामी प्रभु की लीला, विश्वामित्र भी समझ न पाते||
सुअवसर देख एक दिन ऋषि ने, जनकपुरी का नाम लिया|
धनुष यज्ञ का वृतांत सुना, राजकुमारों को मोह लिया||
चले दशरथनंदन संग गुरू के, पथ में मिला आश्रम सुनसान|
न खग, न हिरण, न कोई जन्तु, बस वहाँ पड़ा था एक पाषाण||
राम बहुत अचंभित हो गए, गुरू से प्रकट की अपनी जिज्ञासा|
उस पाषाण की कथा सुना, गुरू बताए शिला की अभिलाषा||
एक थे ऋषि गौतम, परिणीता अहिल्या थी मानिनी|
पतिव्रता थी, साथ ही थी अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी||
इन्द्रदेव की नजर फिसली, सुन्दरता पर हो गए मोहित|
अभिलाषा हुई उन्हें पाने की, सोच न पाए हित-अनहित||
एक प्रातः गौतम गए, करने को स्नान|
मित्र ही धोखा दे देंगे, इसका नहीं था भान||
गौतम का रूप धरा इन्द्र ने, ऋषि-पत्नी पहचान नहीं पाई|
विश्वासघात किया देवराज ने, पतिव्रता ने धोखा खाई||
वापस लौटते हुए गौतम ने, निज रूप में देखा इन्द्र को|
पहचान कर विस्मित हुए, आखिर गए थे ये किधर को||
आश्रम में जो पग रखा, बात समझ में आ गई|
क्षुब्ध वह हुए बहुत, क्रोध ने चरम सीमा पाई||
क्रोधित ऋषि ने आपा खोया, शिला बनने का दे दिया श्राप|
अहिल्या रोई, गिड़गिड़ाई, मुक्ति का मार्ग भी बताएँ आप||
क्रोध उतरा ऋषि पछताए, पर बचा नहीं था उपाय|
मुक्ति तो तभी मिलेगी, जब श्रीराम चरण-रज पाय||
गुरू ने राम को बतलाया, अहिल्या से हुई अनजाने इक भूल|
कृपा करें शापित शिला पर, दें स्व चरणों की पवित्र धूल||
श्रीराम के शिला-स्पर्श से, हुई प्रकट तेजोमयी नारी|
पाकर रघुनाथ को सामने, मुँह के बोल वह हारी||
नेत्रों से बह चली धार अश्रु की, रह न पाई वह खड़ी|
खुद को भाग्यवती माना, श्रीराम चरणों में गिर पड़ी||
धर धीर, जगतस्वामी को पहचाना, जिनकी दया से मुक्त हुई|
उनकी कृपा और भक्ति पाकर, मन ही मन वह तृप्त हुई||
कर जोड़ विमल वाणी में बोली, हूँ तो मैं स्त्री अपवित्र|
प्रभु हैं सुखदाता, कृपानिधान, करते जग को सदा पवित्र||
भव को भयमुक्त कराने वाले, पड़ी हूँ मैं आपके चरण|
मेरी भी रक्षा करें, आ गई हूँ प्रभु, सिर्फ आपके शरण||
शाप दिया ऋषि गौतम ने , उसका ही तो लाभ मिला|
उनके परम अनुग्रह से ही, प्रभु दर्शन कर मन मेरा खिला||
मैं बुद्धि से हूँ भोली, बस कृपा इतनी सी कीजिए|
मेरा मन रूपी भ्रमर
आपके चरण-रज रस-पान करे, वर यही तो दीजिए||
आई पवित्र गंगा प्रभु-चरण से, शिव ने मस्तक पर धार लिया|
ब्रह्मा भी पूजें चरण जिनके, उन चरणों के स्पर्श का सौभाग्य मिला||
परम आनन्द से पूरित होकर, अहिल्या स्वर्गलोक को गई|
श्राप वरदान साबित हुआ, बात यह सिद्ध कर गई||
ऋता शेखर ‘मधु’