मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

अहसास का साथ

छंदमुक्त रचना....

अहसास का साथ
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एकांत में रहने वाले मनु
कभी सोचा है गहराई से
क्या वाकई तुम अकेले हो?

नहीं, बिल्कुल भी नहीं
साकार न भी हो कोई
मगर हम सभी मनुष्य
किसी न किसी घेरे में रहते हैं|

कभी खुशियों की गोद में
कभी गमों की नदी में
कभी यादों में डूबे हुए
कभी भविष्य संजोने में

निरंतर साथ होता है
कोई न कोई एहसास
हर समय हर जगह
फिर क्यों रोते हौ भाई!

यदि सामने बैठा हो कोई
तब भी तुम अकेले हो
सामने वाला नहीं समझता
तुम्हारी इच्छाओं को
तुम्हारी भावनाओं को
क्या कहलाएगा यह??

प्रभु के आभारी हैं हम
दिया है उसने तन में मन
वह कभी किसी को भी
एकाकी नहीं होने देता

संवाद के लिए हमेशा
होठों का हिलना जरूरी नहीं
मन के भीतर के संवाद
हल दे जाते हैं
जटिल समस्याओं के
खुद ही करते सवाल
खुद जवाब देते रहते
फिर बोल रे मनु!
तुम अकेले कहाँ हो???
फिर अकेलेपन की शिकायत कैसी...
दुआ करो कि अहसास का साथ न छूटे कभी
................ऋता

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

अरुण निशा के बीच दिवस का बीता जाए पल


१.
अरुण निशा के बीच दिवस का बीता जाए पल|
कुछ लम्हे हैं प्रीत के तो कुछ में भरे हैं छल|
शिलालेख सदा कहता है कैसा रहा अतीत,
कुछ अवसाद होते हैं ऐसे वक्त ही जिनका हल|

२.
सुगंध अनूठे लेकर डलिया में ऋतुराज हैं आए|
कलियों ने ज्यूँ घूँघटा पट खोला श्याम अलि इतराए|
रंगों की छिटकन दे दे कर भरता है रूप  चितेरा
बौरा गई है कोयलिया जब से आम्रकुँज बौराए|

३.
इस जहाँ से जब हम नाता तोड़ जाएँगे|
इक नाम ही तो होगा जो छोड़ जाएँगे| 
रखते नहीं शिकवा या शिकायतें किसी से,
हो सके तो रुख तूफ़ाँ का मोड़ जाएँगे|

४.
फूलों की डोली ले आया है बहार देखो|

बागों में पतझर का हो रहा श्रृंगार देखो|

गुँथ हैं चहुँ ओर चम्पई गेंदों के पुष्प हार,

माँ शारदे का महका है वंदनवार देखो|

५.
खिल रही हैं वाटिका मे अनगिनत कलियाँ|

गूँजे  भँवरों के स्वर मँडरायी तितलियाँ|

खेत इतरा गए कर सरसो  संग विहार,

नव कोंपलें बन गईं धरती का श्रृंगार !

६.
किस्मत वालों को ही मिलती हैं उम्र की ढलान|
आधियों में अडिग ही करते इसको अपने नाम|
दिन बीता घर लौट चलो कहती है सांध्य की लाली,
हुलस हुलस गऊएँ हैं दौड़ीं  सूरज की किरणें थाम|

७.
सुबहो शाम कदमों गाड़ियों की रफ़्तार से|
थकी सड़क ये पूछती है बड़े मनुहार से|
पथिक, बता मेरी मंजिल कहीं है या नहीं,
या सदा बढ़ते रहेंगे कारवां कतार से|

८.
बिना ही भूल के उसने सजा पाई|
शिला बन ठोकरें भी राह में खाई|
अहिल्या को छले थे इन्द्र धोखे से,
वही क्यूँ शाप के फिर दंश में आई??
....................ऋता शेखर मधु

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

बागों में पतझर का हो रहा श्रृंगार...


फूलों की डोली ले आया है बहार

बागों में पतझर का हो रहा श्रृंगार 

गुँथे हैं चम्पई गेंदों के पुष्प हार

माँ शारदे, तुझे नमन है बारम्बार !


पीत वसन मुख चंद्र सा है

कर में वीणा रसरंग सा है

बैर, मक्को,कंद का चढ़ रहा आहार

धूप चंदन से सुगंधित हुआ है वंदनवार!


खिल रही हैं वाटिका मे अनगिनत कलियाँ

गूँज उठे भँवरों के स्वर मँडरायी तितलियाँ


खेत भी इतरा रहा कर सरसो  संग विहार

नव कोंपल भी धरती को देखें निहार निहार !


श्रृंगारित है नायिका ले पिया मिलन की आस

कँगना की झंकार में भरा हुआ विश्वास

कहीं विरह की ज्वाला दहके है बार बार

हवा बासंती चूम रही पँखुड़ियों को सँवार !

...............ऋता