शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

जगमग दीप जले

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नवगीत
नए नए दीपों की माला
पथ में रोज सजाना प्रियवर
अँधियारी रातों के साथी
जगमग कर बन जाना प्रियवर

जिनके दृग की ज्योति छिन गई
उनके मन को रौशन करना
द्वार रंगोली जहाँ मिटी है
तँह रंगों की छिटकन भरना

ख्वाबों से मोती चुन चुन कर
तोरण एक बनाना प्रियवर

तारों की अवली से अवनी
अपनी माँग सजाती जाती
गहन बादलों के पीछे से
चपल दामिनी रूप दिखाती

सूरज के तपते कदमों पर
शबनम बन झर जाना प्रियवर

निश्छल मन पर हुए वार से
जग में लाखों दर्पण टूटे
मंदिर की सीढ़ी पर चढ़कर
जाने कितने अर्पण छूटे

नन्हे दीपक की बाती में
आस बिम्ब लहराना प्रियवर

सबके चैन अमन की खातिर
ओढ़ तिरंगा सरहद से आये
कोमल मन की सूनी बगिया
पारिजात फिर कहाँ से पाये

मुर्छित होते घर के ऊपर
विटप वृक्ष बन जाना प्रियवर

--ऋता शेखर ‘मधु’

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016

हम उन्हें आफ़ताब कहते हैं-ग़ज़ल

हम तो दिल की किताब कहते हैं
आप जिसको गुलाब कहते हैं

जो उलझते रहे अँधेरों से
हम उन्हें आफ़ताब कहते हैं

धर्म के नाम पर मिटेंगे हम
उस गली के जनाब कहते हैं

हुक्म की फ़ेहरिस्त लम्बी है
शौहरों को नवाब कहते हैं

तोड़ दो नफरतों की दीवारें
उल्फतों का हिसाब कहते हैं

मुस्कुराके नजर मिलाते हैं
क्या इसी को नकाब कहते हैं

--ऋता शेखर ‘मधु’

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

भूख-लघुकथा


“अरे ओ रामू, उठ रे, उत्तर से पानी बढ़ता ही जा रहा है| हमारी मकई खराब हो जाएगी रे| अब का होगा”
“चिन्ता ना कर कलुआ, जो भगवान पेट दिया है वोही अनाज भी देगा|”
“भगवान का करेगा| बाढ़ लाकर वोही तो तबाह करता है| हमरे माई बापू मेहरारु लइका सब का खाएँगे| चल, जो बोरी शहर भेजे खातिर रखे हैं वोही निकालते हैं| वैसे भी भीगी बोरी किस काम की|”
रामू और कलुआ ने बोरी खोली|थोड़ी सड़ाँध आ चुकी थी| कलुआ ने वही चावल पकाने के लिए ले लिया|
“ना रे कलुआ, हम तो इसका भात नाहिं खाएँगे|”
“तब इ का शहर वाले खाएँगे| वहाँ तो सब अच्छा अच्छा जाएगा| हमारा पेट सब पचा लेता है रे रामू|”

--ऋता

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

कृषक कवि घाघ की कहावतें

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भारत एक कृषि प्रधान देश है|
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान किसान कवि घाघ व भड्डरी की कहावतें खेतिहर समाज का पीढि़यों से पथप्रदर्शन करते आयी हैं। हिन्दी के लोक कवियों में कृषक कवि घाघ का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
बिहार व उत्तेरप्रदेश के गांवों में ये कहावतें आज भी काफी लोकप्रिय हैं। जहां वैज्ञानिकों के मौसम संबंधी अनुमान भी गलत हो जाते हैं, ग्रामीणों की धारणा है कि घाघ की कहावतें प्राय: सत्य साबित होती हैं।
घाघ का जीवन वृत्त
हिन्दी के लोक कवियों में घाघ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। घाघ लोक जीवन में अपनी कहावतों के लिए प्रसिद्ध हैं। जिस प्रकार ग्राम्य समाज में इसुरीअपनी फागके लिए, विसराम अपने बिरहोंके लिए प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार घाघ अपनी कृषि संबंधी कहावतों के लिए विख्यात हैं।
हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में घाघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम शिवसिंह सरोजमें उल्लेख मिलता है। इसमें कान्यकुब्ज अंतर्वेद वालेकवि के रूप में उनकी चर्चा है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने घाघ का केवल नामोल्लेख किया है।हिन्दी शब्द सागरके अनुसार घाघ गोंडे के रहने वाले एक बड़े चतुर और अनुभवी व्यक्ति का नाम है जिसकी कही हुई बहुत सी कहावतें उत्तरी भारत में प्रसिद्ध हैं। खेती-बारी, ऋतु-काल तथा लग्न-मुहूर्त आदि के सम्बन्ध में इनकी विलक्षण उक्तियाँ किसान तथा साधारण लोग बहुत कहते हैं।
श्रीयुत पीर मुहम्मद यूनिस ने घाघ की कहावतों की भाषा के आधार पर उन्हें चम्पारन (बिहार) और मुजफ्फरपुर जिले की उत्तरी सीमा पर स्थित औरेयागढ़ अथवा बैरगनिया अथवा कुड़वा चैनपुर के समीप के किसी गाँव में उत्पन्न माना है।
राय बहादुर मुकुन्द लाल गुप्त विशारदने कृषि रत्नावलीमें उन्हें कानपुर जिला अन्तर्गत किसी ग्राम का निवासी ठहराया है।
श्री दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने घाघ का जन्म छपरा जिले में माना है।
पं. राम नरेश त्रिपाठी ने कविता कौमुदीभाग एक और घाघ’ और ‘घाघ और भड्डरीनामक पुस्तक में उन्हें कन्नौज का निवासी माना है।
घाघ की अधिकांश कहावतों की भाषा भोजपुरी है। डॉ. ग्रियर्सन ने भी पीजेन्ट लाइफ आफ बिहारमें घाघ की कविताओं का भोजपुरी पाठ प्रस्तुत किया है। इस आधार पर इस धारणा को बल मिलता है कि घाघ का जन्म स्थान बिहार का छपरा था। ऐसा अनुमान है कि घाघ जीविकोपार्जन के लिए छपरा छोड़कर अपनी ससुराल कन्नौज गये होंगे और वहीं बस गये होंगे।
जन्म काल एवं निवास स्थान
घाघ का जन्मकाल भी निर्विवाद नहीं है। शिवसिंह सेंगर ने उनकी स्थिति सं. 1753 वि. के उपरान्त माना है। इसी आधार पर मिश्रबन्धुओं ने उनका जन्म सं. 1753 वि. और कविता काल सं. 1780 वि. माना है।भारतीय चरिताम्बुधिमें इनका जन्म सन् 1696 ई. बताया जाता है। पं. राम नरेश त्रिपाठी ने घाघ का जन्म सं. 1753 वि. माना है। यही मत आज सर्वाधिक मान्य है|
घाघ के नाम के विषय में भी निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं है। घाघ उनका मूल नाम था या उपनाम था इसका पता नहीं चलता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र-बिहार, बंगाल एवं असम प्रदेश में डाक नामक कवि की कृषि सम्बन्धी कहावतें मिलती हैं जिनके आधार पर विद्वानों का अनुमान है कि डाक और घाघ एक ही थे। घाघ की जाति के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कतिपय विद्वानों ने इन्हें ग्वालामाना है। किन्तु श्री रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी खोज के आधार पर इन्हें ब्राह्मण (देवकली दुबे) माना है। उनके अनुसार घाघ कन्नौज के चौधरी सराय के निवासी थे। कहा जाता है कि घाघ हुमायूँ के दरबार में भी गये थे। हुमायूँ के बाद उनका सम्बन्ध अकबर से भी रहा। अकबर गुणज्ञ था और विभिन्न क्षेत्रों के लब्धप्रतिष्ठि विद्वानों का सम्मान करता था। घाघ की प्रतिभा से अकबर भी प्रभावित हुआ था और उपहार स्वरूप उसने उन्हें प्रचुर धनराशि और कन्नौज के पास की भूमि दी थी, जिस पर उन्होंने गाँव बसाया था जिसका नाम रखा अकबराबाद सराय घाघ। सरकारी कागजों में आज भी उस गाँव का नाम सराय घाघहै। यह कन्नौज स्टेशन से लगभग एक मील पश्चिम में है। अकबर ने घाघ को चौधरीकी भी उपाधि दी थी। इसीलिए घाघ के कुटुम्बी अभी तक अपने को चौधरी कहते हैं। सराय घाघका दूसरा नाम चौधरी सरायभी है।घाघ की पत्नी का नाम किसी भी स्रोत से ज्ञात नहीं है| किन्तु उनकी कविताओं में'कहै घाघ सुन घाघिनी' जैसे उल्‍लेख आए हैं।
प्राचीन महापुरूषों की भांति घाघ के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही कृषि विषयकसमस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी थी कि दूर-दूर से लोग अपनी खेती सम्बन्धी समस्याओं को लेकर उनका समाधान निकालने के लिए घाघ के पास आया करते थे। किंवदन्ती है कि एक व्यक्ति जिसके पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी किन्तु उसमें उपज इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था, घाघ की गुणज्ञता को सुनकर वह उनके पास आया। उस समय घाघ हमउम्र के बच्चों के साथ खेल रहे थे। जब उस व्यक्ति ने अपनी समस्या सुनाई तो घाघ सहज ही बोल उठे-
आधा खेत बटैया देके, ऊँची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।
कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार कार्य करने पर वह किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
घाघ कृषि पंडित एवं व्यावहारिक पुरुष थे। उनका नाम भारतवर्ष के, विशेषत: उत्तरी भारत के, कृषकों के जिह्वाग्र पर रहता है। चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटना, घाघ की कहावतें उनका पथ प्रदर्शन करती हैं। ये कहावतें मौखिक रूप में भारत भर में प्रचलित हैं।
घाघ और भड्डरी की कहावतें नामक पुस्‍तक में देवनारायण द्विवेदी लिखते हैं, ''कुछ लोगों का मत है कि घाघ का जन्म संवत् 1753 में कानपुर जिले में हुआ था। मिश्रबंधु ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है, पर यह बात केवल कल्पना-प्रसूत है। यह कब तक जीवित रहे, इसका ठीक-ठाक पता नहीं चलता।''
अभी तक घाघ की लिखी हुई कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं हुई। उनकी वाणी कहावतों के रूप में बिखरी हुई है, जिसे अनेक लोगों ने संग्रहीत किया है। इनमें रामनरेश त्रिपाठी कृत 'घाघ और भड्डरी' (हिंदुस्तानी एकेडेमी, 1931 ई.) अत्यंत महत्वपूर्ण संकलन है।
कवि घाघ की कहावतें एवं उनका वर्गीकरण
घाघ के कृषिज्ञान का पूरा-पूरा परिचय उनकी कहावतों से मिलता है।
उनका यह ज्ञान निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है।
1.कृषि के लिए कवि घाघ का अभिमत
2.खादों के विभिन्न रूपों
3. गहरी जोत
4. मेंड़ बाँधना
5. फसलों को बोने के लिए बीज की मात्रा
6. बीजों के बीच की दूरी
7. दालों की खेती के महत्व
8.ज्योतिष ज्ञान
1.कृषि के लिए कवि घाघ का अभिमत
घाघ का अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है, जिसमें किसान भूमि को स्वयं जोतता है :
उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान। 1
खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै। 2
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो सँग रहा। 3
जो हल जोतै खेती वाकी और नहीं तो जाकी ताकी। 4
2.खादों के विभिन्न रूप
खादों के संबंध में घाघ के विचार अत्यंत पुष्ट थे। उन्होंने गोबर, कूड़ा, हड्डी, नील, सनई, आदि की खादों को कृषि में प्रयुक्त किए जाने के लिये वैसा ही सराहनीय प्रयास किया जैसा कि 1840 ई. के आसपास जर्मनी के सप्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग ने यूराप में कृत्रिम उर्वरकों के संबंध में किया था। घाघ की निम्नलिखित कहावतें अत्यंत सारगर्भित हैं,जैसे:-
खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।
सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।
गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।
वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
3. गहरी जोत
घाघ ने गहरी जुताई को सर्वश्रेष्ठ जुताई बताया। यदि खाद छोड़कर गहरी जोत कर दी जाय तो खेती को बड़ा लाभ पहुँचता है :
छोड़ै खाद जोत गहराई, फिर खेती का मजा दिखाई।
4. मेंड़ बाँधना
कवि घाघ का कहना है कि बांध न बाँधने से भूमि के आवश्यक तत्व घुल जाते और उपज घट जाती है। इसलिये किसानों को चाहिए कि खेतों में बाँध अथवा मेंड़ बाँधे
सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी
जो पचास का सौ न तुलै, देव घाघ को गारी।
5. फसलों के बोने के लिए बीज की मात्रा
घाघ ने फसलों के बोने का उचित काल एवं बीज की मात्रा का भी निर्देश किया है।
उनके अनुसार प्रति बीघे में---
पाँच पसेरी गेहूँ तथा जौ,
छ: पसेरी मटर,
तीन पसेरी चना,
दो सेर मोथी, अरहर और मास,
डेढ़ सेर कपास, बजरा बजरी, साँवाँ कोदों
अंजुली भर सरसों बोकर किसान दूना लाभ उठा सकते हैं।
6. बीजों के बीच की दूरी
यही नहीं, उन्होंने बीज बोते समय बीजों के बीच की दूरी का भी उल्लेख किया है, जैसे--
घना-घना सन,
मेंढ़क की छलांग पर ज्वार,
पग पग पर बाजरा और कपास,
हिरन की छलाँग पर ककड़ी और
पास पास ऊख को बोना चाहिए।
कच्चे खेत को नहीं जोतना चाहिए, नहीं तो बीज में अंकुर नहीं आते।
यदि खेत में ढेले हों, तो उन्हें तोड़ देना चाहिए।
7. दालों की खेती के महत्व
घाघ ने सनई, नील, उर्द, मोथी आदि द्विदलों को खेत में जोतकर खेतों की उर्वरता बढ़ाने का स्पष्ट उल्लेख किया है। खेतों की उचित समय पर सिंचाई की ओर भी उनका ध्यान था।
आजकल दालों की खेती पर विशेष बल दिया जाता है, क्योंकि उनसे खेतों में नाइट्रोजन की वृद्धि होती है। घाघ की जानकारी आज के सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण मानी जा सकती है|
8.ज्योतिष ज्ञान
I.सुकाल और अकाल -
सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर।
परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर।।
यदि रोहिणी भर तपे और मूल भी पूरा तपे तथा जेठ की प्रतिपदा तपे तो सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।
यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है।
अद्रा भद्रा कृत्तिका, अद्र रेख जु मघाहि।
चंदा ऊगै दूज को सुख से नरा अघाहि।।
यदि द्वितीया का चन्द्रमा आर्द्रा नक्षत्र, कृत्तिका, श्लेषा या मघा में अथवा भद्रा में उगे तो मनुष्य सुखी रहेंगे।
सोम सुक्र सुरगुरु दिवस, पौष अमावस होय।
घर घर बजे बधावनो, दुखी न दीखै कोय।।
यदि पूस की अमावस्या को सोमवार, शुक्रवार बृहस्पतिवार पड़े तो घर घर बधाई बजेगी-कोई दुखी न दिखाई पड़ेगा।

सावन पहिले पाख में, दसमी रोहिनी होय।
महंग नाज अरु स्वल्प जल, विरला विलसै कोय।।
यदि श्रावण कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को रोहिणी हो तो समझ लेना चाहिए अनाज महंगा होगा और वर्षा स्वल्प होगी, विरले ही लोग सुखी रहेंगे।
सावन मास बहे पुरवइया।
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।।
अर्थात् यदि सावन महीने में पुरवैया हवा बह रही हो तो अकाल पड़ने की संभावना है। किसानों को चाहिए कि वे अपने बैल बेच कर गाय खरीद लें, कुछ दही-मट्ठा तो मिलेगा।
पूस मास दसमी अंधियारी।बदली घोर होय अधिकारी।
सावन बदि दसमी के दिवसे।भरे मेघ चारो दिसि बरसे।।
यदि पूस बदी दसमी को घनघोर घटा छायी हो तो सावन बदी दसमी को चारों दिशाओं में वर्षा होगी। कहीं कहीं इसे यों भी कहते हैं-काहे पंडित पढ़ि पढ़ि भरो, पूस अमावस की सुधि करो।
पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज।
मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।।
यदि पूस सुदी सप्तमी, अष्टमी और नवमी को बदली और गर्जना हो तो सब काम सुफल होगा अर्थात् सुकाल होगा।
अखै तीज तिथि के दिना, गुरु होवे संजूत।
तो भाखैं यों भड्डरी, उपजै नाज बहूत।।
यदि वैशाख में अक्षय तृतीया को गुरुवार पड़े तो खूब अन्न पैदा होगा।
सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।
यदि सावन सुदी सप्तमी को आधी रात के समय बादल गरजे और पानी बरसे तो झुरा पड़ेगा; न बरसे तो समय अच्छा बीतेगा।
असुनी नलिया अन्त विनासै।गली रेवती जल को नासै।।
भरनी नासै तृनौ सहूतो।कृतिका बरसै अन्त बहूतो।।
यदि चैत मास में अश्विनी नक्षत्र बरसे तो वर्षा ऋतु के अन्त में झुरा पड़ेगा; रेतवी नक्षत्र बरसे तो वर्षा नाममात्र की होगी; भरणी नक्षत्र बरसे तो घास भी सूख जाएगी और कृतिका नक्षत्र बरसे तो अच्छी वर्षा होगी।
आसाढ़ी पूनो दिना, गाज बीजु बरसंत।
नासे लच्छन काल का, आनंद मानो सत।।
आषाढ़ की पूणिमा को यदि बादल गरजे, बिजली चमके और पानी बरसे तो वह वर्ष बहुत सुखद बीतेगा।
II.वर्षा
रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।
यदि रोहिणी बरसे, मृगशिरा तपै और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।
उत्रा उत्तर दै गयी, हस्त गयो मुख मोरि।
भली विचारी चित्तरा, परजा लेइ बहोरि।।
उत्तर नक्षत्र ने जवाब दे दिया और हस्त भी मुंह मोड़कर चला गया। चित्रा नक्षत्र ही अच्छा है कि प्रजा को बसा लेता है। अर्थात् उत्तरा और हस्त में यदि पानी न बरसे और चित्रा में पानी बरस जाए तो उपज अच्छी होती है।
खनिके काटै घनै मोरावै।
तव बरदा के दाम सुलावै।।
ऊंख की जड़ से खोदकर काटने और खूब निचोड़कर पेरने से ही लाभ होता है। तभी बैलों का दाम भी वसूल होता है।
हस्त बरस चित्रा मंडराय।
घर बैठे किसान सुख पाए।।
हस्त में पानी बरसने और चित्रा में बादल मंडराने से (क्योंकि चित्रा की धूप बड़ी विषाक्त होती है) किसान घर बैठे सुख पाते हैं।
हथिया पोछि ढोलावै।
घर बैठे गेहूं पावै।।
यदि इस नक्षत्र में थोड़ा पानी भी गिर जाता है तो गेहूं की पैदावार अच्छी होती है।
जब बरखा चित्रा में होय।
सगरी खेती जावै खोय।।
चित्रा नक्षत्र की वर्षा प्राय: सारी खेती नष्ट कर देती है।
जो बरसे पुनर्वसु स्वाती।
चरखा चलै न बोलै तांती।
पुनर्वसु और स्वाती नक्षत्र की वर्षा से किसान सुखी रहते है कि उन्हें और तांत चलाकर जीवन निर्वाह करने की जरूरत नहीं पड़ती।
जो कहुं मग्घा बरसै जल।
सब नाजों में होगा फल।।
मघा में पानी बरसने से सब अनाज अच्छी तरह फलते हैं।
जब बरसेगा उत्तरा।
नाज न खावै कुत्तरा।।
यदि उत्तरा नक्षत्र बरसेगा तो अन्न इतना अधिक होगा कि उसे कुते भी नहीं खाएंगे।
दसै असाढ़ी कृष्ण की, मंगल रोहिनी होय।
सस्ता धान बिकाइ हैं, हाथ न छुइहै कोय।।
यदि असाढ़ कृष्ण पक्ष दशमी को मंगलवार और रोहिणी पड़े तो धान इतना सस्ता बिकेगा कि कोई हाथ से भी न छुएगा।
असाढ़ मास आठें अंधियारी।जो निकले बादर जल धारी।।
चन्दा निकले बादर फोड़।साढ़े तीन मास वर्षा का जोग।।
यदि असाढ़ बदी अष्टमी को अन्धकार छाया हुआ हो और चन्द्रमा बादलों को फोड़कर निकले तो बड़ी आनन्ददायिनी वर्षा होगी और पृथ्वी पर आनन्द की बाढ़-सी आ जाएगी।
असाढ़ मास पूनो दिवस, बादल घेरे चन्द्र।
तो भड्डरी जोसी कहैं, होवे परम अनन्द।।
यदि आसाढ़ी पूर्णिमा को चन्द्रमा बादलों से ढंका रहे तो भड्डरी ज्योतिषी कहते हैं कि उस वर्ष आनन्द ही आनन्द रहेगा।
III.पैदावार
रोहिनी जो बरसै नहीं, बरसे जेठा मूर।
एक बूंद स्वाती पड़ै, लागै तीनिउ नूर।।
यदि रोहिनी में वर्षा न हो पर ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र बरस जाए तथा स्वाती नक्षत्र में भी कुछ बूंदे पड़ जाएं तो तीनों अन्न (जौ, गेहूं, और चना) अच्छा होगा।
IV.जोत
गहिर न जोतै बोवै धान।
सो घर कोठिला भरै किसान।।
गहरा न जोतकर धान बोने से उसकी पैदावार खूब होती है।
गेहूं भवा काहें।असाढ़ के दुइ बाहें।।
गेहूं भवा काहें।सोलह बाहें नौ गाहें।।
गेहूं भवा काहें। सोलह दायं बाहें।।
गेहूं भवा काहें। कातिक के चौबाहें।।
गेहूं पैदावार अच्छी कैसे होती है ? आषाढ़ महीने में दो बांह जोतने से; कुल सोलह बांह करने से और नौ बार हेंगाने से; कातिक में बोवाई करने से पहले चार बार जोतने से।
गेहूं बाहें। धान बिदाहें।।
गेहूं की पैदावार अधिक बार जोतने से और धान की पैदावार विदाहने (धान का बीज बोने के अगले दिन जोतवा देने से,यदि धान के पौधों की रोपाई की जाती है तो विदाहने का काम नहीं करते, यह काम तभी किया जाता है जब आप खेत में सीधे धान का बीज बोते हैं) से अच्छी होती है।
गेहूं मटर सरसी।
औ जौ कुरसी।।
गेहूं और मटर बोआई सरस खेत में तथा जौ की बोआई कुरसौ में करने से पैदावार अच्छी होती है।
गेहूं गाहा, धान विदाहा।
ऊख गोड़ाई से है आहा।।
जौ-गेहूं कई बांह करने से धान बिदाहने से और ऊख कई बार गोड़ने से इनकी पैदावार अच्छी होती है।
गेहूं बाहें, चना दलाये।
धान गाहें, मक्का निराये।
ऊख कसाये।
खूब बांह करने से गेहूं, खोंटने से चना, बार-बार पानी मिलने से धान, निराने से मक्का और पानी में छोड़कर बाद में बोने से उसकी फसल अच्छी होती है।
पुरुवा रोपे पूर किसान।
आधा खखड़ी आधा धान।।
पूर्वा नक्षत्र में धान रोपने पर आधा धान और आधा पैया (छूछ) पैदा होता है।
पुरुवा में जिनि रोपो भैया।
एक धान में सोलह पैया।।
पूर्वा नक्षत्र में धान न रोपो नहीं तो धान के एक पेड़ में सोलह पैया पैदा होगा।
V. बोवाई
कन्या धान मीनै जौ।
जहां चाहै तहंवै लौ।।
कन्या की संक्रान्ति होने पर धान (कुमारी) और मीन की संक्रान्ति होने पर जौ की फसल काटनी चाहिए।
कुलिहर भदई बोओ यार।
तब चिउरा की होय बहार।।
कुलिहर (पूस-माघ में जोते हुए) खेत में भादों में पकने वाला धान बोने से चिउड़े का आनन्द आता है-अर्थात् वह धान उपजता है।
आंक से कोदो, नीम जवा।
गाड़र गेहूं बेर चना।।
यदि मदार खूब फूलता है तो कोदो की फसल अच्छी है। नीम के पेड़ में अधिक फूल-फल लगते है तो जौ की फसल, यदि गाड़र (एक घास जिसे खस भी कहते हैं) की वृद्धि होती है तो गेहूं बेर और चने की फसल अच्छी होती है।
आद्रा में जौ बोवै साठी।
दु:खै मारि निकारै लाठी।।
जो किसान आद्रा में धान बोता है वह दु:ख को लाठी मारकर भगा देता है।
आद्रा बरसे पुनर्वसुजाय, दीन अन्न कोऊ न खाय।।
यदि आर्द्रा नक्षत्र में वर्षा हो और पुनर्वसु नक्षत्र में पानी न बरसे तो ऐसी फसल होगी कि कोई दिया हुआ अन्न भी नहीं खाएगा।
आस-पास रबी बीच में खरीफ।
नोन-मिर्च डाल के, खा गया हरीफ।।
खरीफ की फसल के बीच में रबी की फसल अच्छी नहीं होती।
निष्कर्ष
दरअसल कृषक कवि घाघ ने अपने अनुभवों से जो निष्‍कर्ष निकाले हैं, वे किसी भी मायने में आधुनिक मौसम विज्ञान की निष्‍पत्तियों से कम उपयोगी नहीं हैं।

घाघ और भड्डरी की कहावतें लोक जीवन में प्रसिद्ध है। ग्राम्य अंचल में रोजमर्रा की खेती एवं सामाजिक समस्याओं का निदान व्यक्ति इन्हीं कहावतों के आधार पर कर लेता है। इनकी कहावतें किसानों के लिए गुरुमंत्र हैं। अवधी और भोजपुरी क्षेत्रों में इनका प्रचार-प्रसार कुछ अधिक ही दिखाई पड़ता है। घाघ और भड्डरी की कहावतें आज भी प्रासंगिक हैं। उनमें ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी प्रचुर सामग्री है। आज शस्य विज्ञान, पादप प्रजनन, पर्यावरण विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान आदि की दृष्टि से इन कहावतों के अध्ययन की आवश्यकता है।
संदर्भ सूत्र--इंटरनेट, विकिपिडिया