रविवार, 30 जून 2019

जिन्दगी को सार देना-गीतिका

मनोरम छंद
मापनी-2122.2122
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गीतिका
पदांत - देना
समांत- आर
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जिन्दगी को सार देना
नेह को विस्तार देना

फूल की चाहत सभी को
शूल को भी प्यार देना

राह में फिसलन बहुत है
चाल को आधार देना

स्वप्न होते अनगढ़े से
कर्म से आकार देना

बोल मीठे भाव निश्छल
जाँचकर उद्गार देना

पेड़ पौधे हैं धरोहर
प्रेम से उपहार देना

जो करे कर्तव्य अपना
बिनकहे अधिकार देना

स्वरचित, अप्रकाशित
--ऋता शेखर 'मधु'

इस छंद के लिए मुझे फेसबुक समूह 'मुक्तक लोक' से सम्मान पत्र मिला है|

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सोमवार, 24 जून 2019

नलिन की वापसी - कहानी

नलिन की वापसी
   सुपर फ़ास्ट ट्रेन तीव्र गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती जा रही थी| जनरल डब्बे की निचली बर्थ पर खिड़की के पास बैठी सुमेधा पवन के शीतल झोंकों का आनन्द ले रही थी| मन के भीतर की खुशियाँ चेहरे पर झलक रही थीं, कभी एक उदासी भी झलक जा रही थी| वह अपने प्यारे बेटे के साथ बनारस जा रही थी | बेटे नलिन ने बारहवीं की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की थी और साथ साथ आईआईटी भी निकाला था उसने| आगे की शिक्षा के लिए शिव के त्रिशूल पर टिकी नगरी वाराणसी में बीएचयू में दाखिला मिला था| वह उसे हॉस्टल छोड़ने जा रही थी| उसके बगल में बैठा नलिन चेतन भगट का नॉवेल ‘थ्री इडियट्स’ पढ़ने में तल्लीन था| उपन्यास पढ़ते हुए कभी उसके चेहरे पर मुस्कान भी आ जाती| सुमेधा ने यूँ ही पूछ लिया,”इस कहानी में क्या है नलिन?”

“तीन इडियट्स की कहानी जिन्होंने आईआईटी कॉलेज में नामांकन कराया है|”

“हा हा हा, आईआईटी वाले इडियट्स... अच्छा, तब तो तुम्हें मजा आ रहा होगा,”मुस्कुराती हुई सुमेधा पुनः बाहर के नजारे देखने लगी| ट्रेन की रफ़तार धीरे धीरे कम होने लगी थी| अगला स्टेशन शायद मुगलसराय था, जो अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन के नाम से जाना जाता है|

ट्रेन के रुकते ही कई यात्री उतर गए, कई चढ़े भी| साथ ही फल वाले, स्नैक्स वाले, पेपर सोप, ताला-चाबी वाले, चिनिया बादाम वाले भी चढ़ गए| शोर से पूरा डब्बा भर गया | चाय कॉफी की बिक्री दनादन होने लगी| सुमेधा और नलिन को इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं था| नलिन अपने उपन्यास में उलझा रहा और सुमेधा स्टेशन के दृष्य देखने में लगी रही|

“मे आई सिट हियर...May I sit here,” फिरंगी टोन में पूछी गई इस बात से सुमेधा ने सामने देखा| एक गोरा चिट्ठा साधु सामने खड़ा था| एक नजर में ही सुमेधा ने उसके पूरे व्यक्तित्व का जायजा ले लिया| गेड़ुआ वस्त्र धारण किए हुए साधु में कहीं से भी भारतीय रूपरेखा की झलक नहीं थी सिवाय उस झोले के, जिसे उसने कंधे पर लटका रखा था|

“मे आई सिट हियर...क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?”, इस बार वह सुमेधा की आँखों में आँखें डालकर पूछ रहा था|

“यस, ऑफ़ कोर्स...हाँ हाँ क्यों नहीं”, सुमेधा ने अपने पलथी लगाए पैरों को नीचे रखते हुए कहा|

वह सुमेधा के बगल में बैठ गया| तब तक नलिन ने एक उड़ती निगाह उस साधु पर डाली | उसके बाद वह फिर से अपने उपन्यास में डूब गया| सुमेधा भी बाहर देख रही थी| ट्रेन में अजनबियों से बातें करने का उसे कोई शौक नहीं था|

“इज़ ही योर सन ?”, नलिन को देखते हुए उसने सुमेधा से पूछा|

“यस..हाँ”, कहते हुए सुमेधा की नजर नलिन से मिली|

“व्हाट इज़ योर नेम यंग बॉय”, उसने नलिन से पूछा|

“नलिन, हिज़ नेम इज़ नलिन....कैन यू अंडरस्टैंड हिन्दी?”, नलिन के बजाय सुमेधा ने जवाब देने के साथ ही सवाल भी ठोक दिया| वह नहीं चाहती थी कि वह फिर से नलिन से कोई सवाल करे|

“हाँ, मैं हिन्दी समझता हूँ और बोल भी लेता हूँ|” मुस्कुराते हुए उसने कहा|

“ओके”, कहकर सुमेधा फिर से बाहर देखने लगी|

“नलिन का क्या अर्थ होता है”, वह चाहता कि बातचीत का सिलसिला कायम रहे|

“लोटस...कमल” सुमेधा को बोलना पड़ा क्योंकि यह बताने में कोई हर्ज़ नहीं था|

“वाउ, गुड नेम| लगता है आपलोग भी वाराणसी जा रहे| वहाँ पढ़ते हो क्या नलिन?”

नलिन ने उपन्यास पर से आखें उठाई,”हाँ”, कहकर फिर पढ़ने लगा|

“मैं फिलिपिन्स से आया हूँ,”यह कहकर वह क्षणभर को चुप रहा|

“तो मैं क्या करूँ”, सोचते हुए सुमेधा ने यह दिखाया जैसे उसे उसकी बातों में कोई दिलचस्पी न हो|

“मैंने श्रीमद्भागवद्गीता पढ़ी है| आई लाइक लॉर्ड कृष्णा| उन्होंने स्वयं के बारे में कहा है...ऋतुओं में मैं बसंत हूँ, वृक्षों में मैं बरगद हूँ और....” वह आगे कुछ कहता उसके पहले ही सुमेधा बोल पड़ी,”बरगद नहीं पीपल”

“ओह, सही कहा, भूल गया था मैं”, भूला था या जानबूझकर कर उसने गलत कहा, यह सुमेधा समझ नहीं सकी|

“अंकल, आपका नाम क्या है,” नलिन ने उपन्यास एक ओर रखते हुए पूछा|

“अंकल मत कहो, डैनियल कहो माय सन” कहते हुए उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई|

“हमारे भारत में बड़ों का नाम नहीं लेते अंकल”नलिन ने मुस्कुराते हुए कहा|

“ओ हो हो हो...”उसकी चालाक सी हँसी तैर गई|

“वैसे अंकल, डैनियल का अर्थ क्या होता है|”

“डैनियल मीन्स गॉड इज़ माय जज़, और जिसका न्याय स्वयं ईश्वर करें वह भी तो सच्चा न्यायकर्ता होगा न”, अपनी व्याख्या पर खुद ही मुग्ध होता हुआ वह बोल पड़ा|

सुमेधा ने नलिन की ओर देखकर आँखों ही आँखों मना किया कि वह आगे बात न करे| नलिन चुप बैठ गया|

किन्तु वह भी कहाँ मानने वाला था,”मुझे भारत के युवाओं मे बहुत ऊर्जा दिखती है| पढ़ाई हो या कोई भी क्षेत्र, हर जगह वे अपनी छाप छोड़ते हैं| मैं कई वर्षों से इसी समय भारत आता हूँ| मुझे अक्सर बीएचयू के विद्याथी मिलते हैं ट्रेन में|”

“मैं भी तो...”अचानक नलिन बोल पड़ा और जिस बात से सुमेधा डर रही थी वह हो गया|नलिन ने अनजाने में अपने कॉलेज का खुलासा कर दिया| उसने उस फिलिपियन साधु की ओर देखा| उसके होठों के कोने पर उभरी कुटिल मुस्कान से वह दहल गई|

“किस शहर से आ रहे हो....नलिन?,”नाम लेकर सवाल पूछना जैसे उसके अधिकार क्षेत्र में चला गया था|

“यह बताना मैं जरूरी नहीं समझती”, कहते हुए सुमेधा की रुखाई झलक गई|

“ओके, ओके, कोई बात नहीं”, अपनी ऊँची गोरी नाक को छूता हुआ कह रहा था|

सुमेधा बोल पढ़ी, “आपने गीता पढ़ी है तो यह भी जानते होंगे कि कृष्णा सर्वव्यापी हैं| वह आपको आपके देश में भी मिल जाएँगे| उनके लिए भारत आने की क्या जरूरत है|”

“कृष्णा के लिए अनुयायी बनाने का काम करता हूँ|”

“मतलब? कैसे अनुयायी बनाते हैं आप?”

“छोड़िये, ये मेरे और कृष्णा के बीच की बातें है, आप नहीं समझेंगी,”कहता हुआ वह उठने का उपक्रम करने लगा क्योंकि ट्रेन अब रुकने ही वाली थी|

सुमेधा और नलिन भी सामान ठीक करने लगे| स्टेशन पर वह पहले उतर गया था किन्तु वहीं पर खड़ा रहा| चूँकि हॉस्टल में रहने की बात थी तो सुमेधा ने टिन का एक बक्स लिया था जिसमें रोज के कपड़ो के अलावा गरम कपड़े भी थे| भारी बक्से को दोनों माँ बेटा मिलकर उतारने की कोशिश कर रहे थे कि उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया| सुमेधा ने कहना चाहा कि उसे मदद की आवश्यकता नहीं, किन्तु चुप रही और उसे बक्से को उतारने दिया| इस दौरान उस गोरे फिरंगी साधु के चेहरे की एक एक रेखा से कुटिलता टपक रही थी|

“उफ! मैं भी कितनी शक्की हूँ, वह मदद ही तो कर रहा है”, यह सोचकर सुमेधा मुस्कुरा दी|

“मैं दो महीने भारत में रहूँगा, फिर अगले साल आऊँगा” कहता हुआ उसने नलिन से हाथ मिलाया और सुमेधा की ओर मुड़कर नमस्कार की मुद्रा में खड़ा हो गया| सुमेधा ने जल्दी से नमस्कार किया और आगे बढ़ने लगी| पता नहीं क्यों किसी अनहोनी की आशंका से उसका मन बार बार उसे सावधान कर रहा था| आने वाले खतरे को भाँप लेने की उसकी अंतर्दृष्टि को परिवार में भी सभी लोग मानते थे|

बीएचयू पहुँचने पर गेस्टरूम में सुमेधा को जगह मिल गई| नलिन को भी हॉस्टल में जगह मिल गई| नलिन के रूममेट के रूप में सही मित्र को देखकर सुमेधा ने चयन किया| अगले दिन आँखों में नमी लिये वह वापस लौट आई| नलिन भी माँ से बिछड़ते हुए भावुक हो गया| नई जगह , नए दोस्त मिले|”

”कैसे एडजस्ट कर पाएगा” कभी वह घर से बाहर नहीं रहा रहा था तो सुमेधा की चिंता वाज़िब थी|

अपने शहर वापस आकर सुमेधा अपनी नौकरी में लग गयी| जिस दौर में नलिन बीएचयू गया था, उस दौर में हर हाथ में मोबाइल नहीं सजे रहते थे| वह जमाना था कि टेलिफोन बूथ पर जाकर एसटीडी कोड के साथ लैंडलाइन पर नम्बर लगाने होते थे| नलिन से बात करने के लिए ऑफ़िस के नम्बर पर फ़ोन लगाना होता था| फिर वे लोग नलिन को बुलाते तब बात हो पाती| शुरू के सप्ताह में लगातार सुमेधा ने नलिन से बात की| एक बार नलिन ने कहा,”माँ, किसी के घर से हर दिन फ़ोन नहीं आता| आप रोज़ फ़ोन करती हैं तो मेरे दोस्त मज़ाक बनाते हैं|”

“ठीक है नलिन, मैं सप्ताह में एक दिन कर लूँगी, या जब सुविधा हो तब तुम ही कर लेना”|

“ठीक है माँ, हर शनिवार को मेस ऑफ़ रहता है तो हमलोग बाहर लंका जाते हैं खाना खाने| मैं वहीं बूथ से बात कर लूँगा|”

“अपना ख्याल रखना बेटा”, कहकर सुमेधा ने फ़ोन रख दिया|

धीरे धीरे सुमेधा भी अपनी दिनचर्या में रमकर नलिन के बारे में थोड़ा कम सोचने लगी| किन्तु शनिवार को फोन का इन्तेजार अवश्य करती| दो महीने से सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था| अब नलिन का फर्स्ट सेमेस्टर होने वाला था तो नलिन ने कह दिया था कि वह फ़ोन न कर पाए तो सुमेधा चिन्ता न करे| एक शनिवार सुमेधा का मन नहीं माना तो उसने हॉस्टल के ऑफ़िस में फ़ोन किया| पता चला कि नलिन कमरे में नहीं, कहीं बाहर गया है| अगले रविवार भी वह बाहर था तो उससे बात नहीं हो सकी| परीक्षा के समय कहाँ घूम रहा है, किसी आशंका ने सुमेधा की नींद उड़ा दी| उसने उसी शाम को फिर से फ़ोन लगाया तो नलिन से बात हो गई|

“कहाँ गए थे नलिन?”सुमेधा ने पूछा|

“इस्कॉन टेंपल गया था माँ, कुछ दिन पहले कॉलेज के गेट पर वही ट्रेन वाले डैनियल मिले थे| उन्होंने ही कहा कि लॉर्ड कृष्णा का ध्यान लगाने से जिंदगी की कई बाधाएँ दूर हो जाती हैं|” ऐसा लग रहा था जैसे नलिन किसी ध्यानमग्न अवस्था में बोल रहा था| सुमेधा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई|

“अभी तुम्हारी परीक्षा है बेटा, कृष्णा भी उसी की मदद करते हैं जो पढ़ता है| उस डैनियल के चक्कर में मत पड़ो नलिन| वह इसी तरह युवा पीढ़ी को बहकाकर कृष्णा का अनुयायी बनाता है, यह अब मेरी समझ में आ रहा| इस बार वह मिले तो वहाँ जाने से मना कर देना|”

“पर माँ, वह शनिवार को गेट पर मिल जाते हैं और कहते हैं कि रविवार को हम सबको कुछ देर इस्कॉन में कृष्णा का ध्यान करना चाहिए|”

इन सब चीज़ों से दूर रहने वाला नलिन आज कैसी बातें कर रहा था| सुमेधा ने नलिन की परवरिश बहुत अच्छे संस्कार देकर की थी| उसकी उम्र के दूसरे बच्चे जहाँ देर रात तक बाहर रहते, नलिन ने कभी ऐसा नहीं किया था उसकी भाषा हमेशा शालीन रहती थी| रैगिंग के दौरान भी गाली न बोल पाने के कारण कई दिनों तक दोस्तों के बीच वह हँसी का पात्र बना रहा था किन्तु अडिग रहा| अभिभावक से दूर हुए बच्चे पर कृष्ण-भक्ति का नशा चढ़ाकर डैनियल आखिर धूर्तता कर ही गया|

“अगली बार मना करना नलिन”|

“शायद न कर पाऊँ”, शायद नलिन विवश था डैनियल के सामने|

“तुम क्या चाहते हो नलिन?”

“मैं नहीं जाना चाहता, पर कोई शक्ति है जो मुझे वहाँ जाने के लिए प्रेरित करती है माँ |”

“ठीक है, अगले रविवार तुम इस्कॉन जाना, मैं तुम्हें वहीं मिलूँगी किन्तु डैनियल को यह पता नहीं चलनी चाहिए”, खतरे को भाँपती हुई सुमेधा ने अगला कदम सोच लिया था|

“ठीक है माँ, आप आना जरूर”, नलिन की आवाज में राहत सी दिखी|

ट्रेन बनारस पहुँच चुकी थी| सुमेधा स्टेशन से सीधे इस्कॉन चली गई| “हरे रामा हरे कृष्णा” पर झूमते हुए कृष्ण के अनुयायियों का झुंड , जाने किस दुनिया में लीन था| अधिकतर विदेशी लग रहे थे| जाने किस शांति की तलाश थी उन्हें| बहुत सारे दुःख दर्द होंगे , तभी मन से वे उस लोक का विचरण कर रहे थे जहाँ उनका अवचेतन मन सब कुछ भूल जाना चाहता था| उन विदेशियों के बीच थे कुछ मासूम भारतीय चेहरे जो स्वेच्छा से तो नहीं ही आए होंगे| अठारह उन्नीस साल के भारतीय बच्चे अशांति के उस स्तर तक नहीं जाते कि उन्हें खुद को भूलना पड़े| उन्हें डैनियल जैसे साधुओं ने यहाँ आकर झूमने को प्रेरित किया होगा|

सुमेधा बेसब्री से नलिन का इन्तेजार कर रही थी|

कुछ देर बाद नलिन डैनियल के साथ आता हुआ दिखा| सुमेधा कृष्ण की प्रतिमा की ओर मुड़कर खड़ी हो गयी और हाथ जोड़कर ”ओम क्लीं कृष्णाय नमः”का जप करने लगी मानो अपने कान्हा को कह रही हो कि मैं हूँ न आपकी भक्ति के लिए|

कुछ देर बाद जब वह मुड़ी तो देखा कि नलिन उस झूमने वाले समूह का हिस्सा बना चुका है| सुमेधा की आँखें नम हो गयीं|

“अरे आप” कहता हुआ डैनियल सामने खड़ा था|

“मेरे बच्चे को बख्श दो डैनियल”, वह हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी|

“मैंने किया ही क्या है| संसार एक मायाजाल है, उस जाल से निकलने में मैं हेल्प करता हूँ और क्या”

“नहीं डैनियल, तुम्हें नहीं मालूम कि कितने घरों के अरमानों को ध्वस्त करते हो तुम| ये मासूम बच्चे जब अपने पेरेन्ट्स की छत्रछाया से दूर होते हैं तो नादान होते हैं| ईश्वर भक्ति में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती इसलिये बात मान लेते हैं तुम्हारी| जीवन की मुख्य धारा से उन्हें अलग करने का प्रयास न करो|”

“अध्यात्म भी एक धारा है,” वह सुमेधा को आश्वस्त करना चाहता था|

“हर उम्र की धाराएँ अलग अलग होती हैं| अध्यात्म की धारा इन नादान बच्चों के लिए नहीं| क्या इस धारा में बहकर तुम खुश हो डैनियल? क्या तुम्हें अपने माता-पीता, भाई- बहन याद नहीं आते?”

अचानक वह कहीं खो गया| शायद अपने घरवालों को याद कर रहा था| उस वक्त वह भी वैसा ही मासूम दिख रहा था जैसे कि नलिन|

सुमेधा कहती जा रही थी,”मैं इसी धारा में अपने भाई को खो चुकी हूँ| घर और विवाह के प्रति उसकी विरक्ति ने हमारे घर को खोखला कर दिया| मुझसे मेरा बेटा मन छीनो डैनियल,” सुमेधा उस समय एक दयनीय याचक की तरह हाथ जोड़कर खड़ी थी|

अचानक डैनियल हँस पड़ा, “जाओ, तुम्हारा पुत्र तुम्हें वापस करता हूँ|”

“सिर्फ मेरा नहीं, इन सभी पढ़ने वाले बच्चों को छोड़ दो जो यहाँ बेसुध झूम रहे| मैं बाहर इन्तेजार कर रही”, कहकर सुमेधा बाहर निकल गई| कुछ देर बाद करीब दस बच्चों को लेकर वह बाहर आया| सभी बच्चों को सम्बोधित कर वह बोल रहा था,”अभी तुमलोगों की पढ़ने की उम्र है| कृष्ण भक्ति का यह मार्ग हमेशा खुला रहेगा| पहले माता पिता के सपनों को साकार करो बच्चों| जिस देश में ऐसी माँएँ हों वहाँ के बच्चों को मुख्यधारा से अलग नहीं किया सकता|”

सुमेधा सभी बच्चों को लेकर चली| कुछ दूर जाकर वह और नलिन पीछे मुड़े| डैनियल वहीं खड़ा उनलोगों को देख रहा था| दोनो ने वहीं से हाथ हिलाया, डैनियल ने भी हाथ हिलाकर उन्हें विदाई दी और मंदिर की ओर मुड़ गया|

अप्रकाशित और मौलिक

ऋता शेखर ‘मधु’

२९/०३/२०१९



यह कहानी है उन युवाओं की जो जीवन की मुख्य धारा से जाने अनजाने अलग हो जाते हैं|

शनिवार, 22 जून 2019

मल्लिका व अनंग शेखर छंद

मल्लिका छंद

21 21 21 21....(212 121 21)
1
दूब से मिलें गणेश।
प्रेम ने किया प्रवेश।।
दान मान ज्ञान संग।
श्वाँस श्वाँस मे उमंग।।
2
है जिया उदास आज।
वीतराग छेड़ साज।।
मंद मंद है समीर।
क्यों पपीहरा अधीर?।।
3
सिंधु में हजार सीप।
पास एक आस दीप।।
हाथ मे लिए गुलाब।
छंद की नई किताब।।
--ऋता शेखर मधु

अनंग शेखर छंद
12 (लघु गुरु) की सोलह आवृत्तियाँ... दो दो पंक्तियों के अंत तुकांत
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
सुनील आसमान में, घिरी घटा सुहावनी,पलाश झूमते रहे, मयूर नाचने लगे।
लता बनी लुभावनी, हवा हुई सुवासिनी,निशीथ प्रीत पात को, चकोर बाँचने लगे।।
गुलाल पीत रंग के ,पराग फूल से झरे ,विनीत बूँद श्रावणी, कली कली सँवारती।
सफ़ेद फेन धारती, हिमाद्रि से बही नदी,जटा हठात छोड़ती, हरी धरा पखारती ।।
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
--ऋता शेखर मधु

आप अच्छे हो - लघुकथा







लघुकथा-पितृदिवस पर आप अच्छे हो 

"निभा, कहाँ है हमारी लाडली बिटिया। देखो!हम तुम्हारे लिए क्या लाये हैं।" घर में घुसते ही नीलेश ने बड़े प्यार से तेज आवाज़ में कहा । सामने विभा खड़ी थी। उसने इशारे से बताया कि निभा अपने कमरे में है। आज दोपहर में निभा का बारहवीं के रिजल्ट आया था। उसका प्रतिशत सहपाठियों के मुकाबले काफ़ी कम था। जब से रिजल्ट आया था, वह आंखों में आँसू लिए बैठी थी। दिन का खाना भी नहीं खाया था उसने। उसकी मम्मी विभा ने नीलेश को फ़ोन करके सब बातें बतायी। 
"अरे, मेरी बिटिया कहाँ है" नीलेश ने बिल्कुल उसी अंदाज में कहा जैसे बचपन में वह बेटी के साथ खेला करता था और सामने देखकर भी नहीं देखने का नाटक किया करता था। निभा ने अपना सिर ऊपर नहीं किया। वैसे ही मूर्तिवत बैठी रही। 
"निभा, देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ" कहते हुए नीलेश ने नन्हा सा टेड्डी निकाला और सामने रख दिया। निभा ने उदास नजर टेड्डी पर डाली। पहले की बात रहती तो वह नीलेश के गले लग जाती। 
"निभा, देखो मैं पटीज़ लाया हूँ और आइसक्रीम भी वही जो फ्लेवर तुम्हें पसन्द है।" यह कहकर उसने दोनों चीज़ें निभा के सामने रख दीं। 
"पापा, प्लीज, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैंने आपके उम्मीदों को तोड़ा है। आपने मुझे हर सुविधा दी, और देखिए मैं कितनी नालायक निकली।" "मेरी बेटी और नालायक, कभी नहीं। मुझे सिर्फ तुम चाहिए बेटा। तुमने प्रयास किया वही हमारे लिए बहुत है...अब चलो, हमलोग जश्न मनाते हैं। विभा, इधर आ आओ" कहते हुए नीलेश ने निभा के मुंह में बड़ा सा चम्मच डाल दिया आइसक्रीम वाला। 
एकसाथ इतनी ठंडा आइसक्रीम मुंह में जाते ही वह उठकर पापा के गले लग कर जोर से रो पड़ी। नीलेश ने उसे रो लेने दिया।अब वह नन्हीं बच्ची नहीं थी जो फुसल जाती। नमी नीलेश की आँखों में भी उतरी पर वह खुशी बिटिया को वापस पा लेने की थी। 
अचानक निभा धीरे से बोली,"आप बहुत अच्छे हो पापा" निभा की गम्भीर आवाज ने नीलेश को अंदर से रुला दिया। --ऋता शेखर मधु