शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

क्रिसमस कहमुकरी

Image result for christmas

तीन कहमुकरियाँ...
१.
बड़ा दिवस में वापस आता
झोली भरकर चीजें लाता
खुश हो जाती प्यारी कांता
का सखि साजन?
ना सखि सांता
२.
प्रेम का तोहफ़ा उसकी बोली
भरी यीशु से उसकी झोली
दूर रखे वह सैनिटोरियम
का सखि साजन?
ना सखि मरियम
३.
उसकी गलियाँ बड़ी सुहानी
शाति प्रीति लगी हैं रुहानी
दया क्षमा वह बाँटे हँस-हँस
का सखि साजन?
ना सखि क्रिसमस

*ऋता शेखर ‘मधु’*

सोमवार, 21 दिसंबर 2015

तुम हँसो तो साथ में हँसता जमाना

2122 2122 2122

देश को हर हाल में बस है बचाना
हो सके तो जान भी अपनी गँवाना

तुम हँसो तो साथ में हँसता जमाना
अश्क आँखों में सदा सबसे छुपाना

क्या खरी ही तुम सदा कहते रहे हो
मिर्च तुमको इसलिए कहता जमाना

वे चुरा लेते हमेशा भाव मेरे
है नहीं आसान अब इसको पचाना

चाँद में भी दाग है कहते रहे हो
बोल कर यह चाहते किसको बचाना

फावड़े यूँ ही नहीं थामे हैं हमने
जानता हूँ राह अपनी खुद बनाना

बेटियाँ फ़नकार हैं मानो इसे भी
पंख से उनको हमें ही है सजाना

*ऋता शेखर ‘मधु’*

शनिवार, 14 नवंबर 2015

सच्ची भक्ति-लघुकथा

''आंटी, आप मंदिर जा रही हैं|" नेहा के हाथों में पूजा की थाल देखकर रहमान ने पूछा|
वह अभी अभी उसके बेटे प्रबोध के साथ आया था|
''हाँ बेटे, पूजा करके आती हूँ|"
जब वह मंदिर से लौटी तो उसने देखा कि रहमान अपने बैग के पास बैठा था और बैग के खुले मुँह से पिस्तौल झाँक रही थी| एकबारगी सिहर गई नेहा| बेटे का मित्र था इसलिए कुछ कह नहीं सकती थी|
दूसरे दिन पास के ही मस्जिद के पास नमाज के लिए रहमान तैयार होने लगा तो नेहा के पास आया| प्रबोध भी उसी वक्त आया और मंदिर जाने की इच्छा व्यक्त करने लगा|
नेहा बोली, तुम दोनो आपने भगवान या खुदा के पास दर्शन के लिए जाओ| पर यह हमेशा याद रखना कि उससे मन की बातें छुपती नहीं| ईश्वर उनकी ही सुनते हैं जो सच्चे दिल से उनकी आराधना करता है| ऐसे में सिर्फ दिखावा के लिए पूजा करना या नमाज के लिए जाना उनकी तौहीन है|
जाने से पहले रहमान ने अपना बैग नेहा को दे दिया और सच्ची भक्ति के लिए चला गया|
नेहा टुकुर टुकुर देख रही थी, वह वाकई निश्छल था या उसकी बातों का असर था|
*ऋता शेखर 'मधु'*

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

बात बन गई -लघुकथा

बात बन गई 
जब भी ग्यारहवीं कक्षा का प्रथम दिन रहता, नेहा महापात्र के लिए बहुत जिज्ञासा का दिन रहता| दसवीं के बाद बहुत तरह के संस्कार और माहौल से बच्चे आते जिन्हें समझने में थोड़ा वक्त लग जाता| कुछ शरारती बच्चों से भी पाला पड़ जाता कभी कभी|
रजिस्टर लेकर नेहा ने क्लासरूम में प्रवेश किया| वह सर झुकाकर हाजिरी लेने लगी तभी सीटी की आवाज आई| नेहा ने सिर उपर उठाया किन्तु सभी भोले बनकर बैठे थे| जाहिर सी बात थी कि कुछ पूछना बेकार था| नेहा ने हाजिरी लिया| बॅाटनी का प्रथम चैप्टर पढाया और चली गई|
दूसरे दिन भी वही सीटी की आवाज और बच्चों के चेहरों पर दबी सी हँसी थी|
आज नेहा कुछ सोच कर आई थी|
उसने कहा,''बच्चों , अगले महीने स्कूल का वार्षिक महोत्सव है जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं| इसमें हम अच्छी उत्कृष्ट कला को बढ़ावा देते हैं| मैं अभी आपलोगों को अच्छी तरह से नहीं जानती पर दो दिनों में यह जान गई हूँ कि आपके बीच कोई है जो सीटियों के माध्यम से अच्छी धुन निकाल सकता है| मैं उस बच्चे का नाम सांस्कृतिक उत्सव के लिए देना चाहती हूँ|''
कुछ देर की शाति के बाद एक छात्र खड़ा हुअा|
नेहा की मुस्कान बता रही थी कि बात बन गई थी|
*ऋता शेखर मधु*

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

रोग दिल का न यूँ तुम बढ़ाओ कभी

Image result for beautiful flying birds images

चल के सपने कहीं तो सजाओ कभी

आसमाँ में परिंदे उड़ाओ कभी


आज है ये जमाना कहाँ से कहाँ

पाँव छूने की रस्में निभाओ कभी


बेटियों के जनम से होते हो दुखी

उनको भी तो गले से लगाओ कभी


अश्क आँखों में रखते दिखाते नहीं

रोग दिल का न यूँ तुम बढ़ाओ कभी


जान हाजिर है अपने वतन के लिए

सरहदों पर इसे आजमाओ कभी

*ऋता शेखर मधु*

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

जीजिविषा-

Image result for small plant between rocks
जीजिविषा--
घर में आनेजाने वालों का और साथ ही फोन पर बधाई देने वालों का ताँता लगा था| शशांक ने इंजीनियरिंग के लिए आइ आइ टी की परीक्षा में अच्छे रैंक लाए थे| घर में उत्सव सा माहौल था|
दो दिनों बाद बारहवीं का परिणाम घोषित होना था| समय पर परिणाम निकला|
मगर यह क्या! शशांक का नाम कहीं नहीं था| सबके पैरों तले की जमीन खिसक गई| तुरंत स्कूल में फोन लगाया गया| पता चला कि भोतिकी में उसे उत्तीर्णांक से कम थे|
एकाएक माहौल गमगीन हो गया| शशांक गुमसुम अपने कमरे में बैठ गया| सबने कहा था, पहले बारहवीं पर ध्यान दो|
उस परिश्रमी बालक की मनःस्थिति कल्पनीय थी| अब न उसे पढ़ने में रुचि थी, न खेलने मे, न कहीं बाहर जाने , और न ही ढंग से खाना खाता|
स्वाति , उसकी बड़ी बहन समझाकर थक गई कि वह अगले साल के लिए जमकर तैयारी करे| मगर उसका निराश मन बड़ा ही मायूस था|
एक दिन शाम को घर के कंक्रीट अहाते में टहलते हुए स्वाति को कुछ दिखा| वह दौड़कर भाई को बाहर घसीट लाई| चिकने चुपड़े साफ कंक्रीट रास्ते पर हल्की दरार से एक नन्हा सा कोंपल झाँक रहा था| उसकी गुलाबी कोमल पत्तियाँ बड़ी सुहावनी थी|
शशांक गौर से उसे देख रहा था|इधर स्वाति भी बड़े गौर से भाई का मन टटोलने की कोशिश कर रही थी |
कुछ देर रुककर स्वाति ने कहा-"भाई, इसे काट देते हैं| नाहक ही यह बढ़ता जाएगा|"
"नही, इसे मत काटो| बहुत मेहनत से इसने ऊपर आने का रास्ता बनाया है|" शशांक ने दृढ़ता से कहा|
इसके बाद वह दौड़कर अपने कमरे में गया और अपनी सारी किताबें व्यवस्थित करने लगा| स्वाति भी पीछे पीछे गई| वापस आकर संतुष्टि से कोमल पत्तियों को सहलाने लगी|
दोनो भाई बहन ने पौधे का नाम रखा, 'जीजिविषा"
*ऋता शेखर 'मधु'*

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

गुलामी-लघुकथा

गुलामी-
''मैम, जल जमाव के कारण हमारे इलाके की स्थिति बहुत खराब है| गाड़ी निकल नहीं सकती और पैदल चलकर आऊँ तो कमर जितने पानी में चलना होगा|''
एक मिनट की चुप्पी के पश्चात प्राचार्या ने कहा," आप डूबकर आएँ, तैर कर आएँ इससे हमे कोई मतलब नहीं|आना है तो आना है| यदि आप झंडोत्तोलन के दिन नहीं आईं तो आपकी गिनती देशद्रोही में की जाएगी|"
यह कहकर उन्होंने फोन काट दिया|
आजादी वाले दिन अपनी गुलामी पर नेहा रो दी| 
किसी तरह  नुक्कड़ पर पहुँची जहाँ से प्रतिदिन रिक्शा लिया करती थी| वहाँ लगभग सभी रिक्शावाले उसे पहचानते थे|
सभी अपने अपने रिक्शे में ताला लगाकर बैठे थे| एक बूढ़े रिक्शावाले ने कहा-'' आप मेरे रिक्शे में बैठ जाएँ, मैं पहुँचा दूँगा|''
उस कमजोर से रिक्शे वाले के रिक्शा पर बैठते हुए नेहा का दिल रो दिया| मगर वह करती भी क्या|
पन्द्रह रुपया और दस मिनट की दूरी वाले विद्यालय की दूरी अचानक बहुत बड़ी लगने लगी|
चारो तरफ पानी ही पानी और रिक्शावाला किसी तरह पूरे दमखम के साथ रिक्शा खींच रहा था| पूरे पैंतालीस मिनट लगे गंतव्य पर पहुँचने में|
उसने सौ रुपए बढ़ाए उस गरीब की ओर| मगर उसने अपने लिए पन्द्रह रुपए रखकर बाकी पैसे लौटा दिए| नेहा का दिल भर आया| उसने वहीं से देखा कि विद्यालय के बरामदे में खड़ी प्राचार्या मुस्कुरा रही थी|

*ऋता शेखर 'मधु'*

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

बंदगी जब की खुदा की हौसले मिलते गए

मतला--
दो दिनों की जिंदगी है आदमी के सामने
जान है क्या चीज बोलो दोस्ती के सामने

हुस्ने मतला--

आँधियाँ भी जा रुकी हैं हिमगिरी के सामने
चाल भी बेजार बनती सादगी के सामने

अशआर--

बेटियाँ हों ना अगर तो बहु मिलेगी फिर कहाँ
कौन सी दौलत बड़ी है इस परी के सामने

बंदगी जब की खुदा की हौसले मिलते गए
झुक न पाया सिर मिरा फिर तो किसी के सामने

नारियाँ सहमी दबी सी ठोकरों में जी रहीं
हर खुशी बेकार है उनकी नमी के सामने

हो अमीरी या गरीबी रख रही इक सी नजर
रौशनी की बात क्या है कौमुदी के सामने

फूल भी खिलते रहे हैं कंटकों के बीच में
खुश्बुएँ बिखरी रही हैं हर किसी  के सामने

*ऋता शेखर 'मधु'*

बह्र -- 2122 2122 2122 212
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
काफिया -- ई (स्वर)
रदीफ़ -- के सामने

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

सिलसिला आज तो जुड़ा कोई

2122 1212 22
काफ़िया-आ
रदीफ़-कोई

सिलसिला आज तो जुड़ा कोई
नफ़रतें छोड़ कर मिला कोई

आसरो से बँधा रहा जीवन
मोगरा डाल पर खिला कोई

नज़्म धड़कन बनी रही हरदम
ख्वाब ऐसा जगा गया कोई

देश मेरा सदा रहे कायम
फाँसियों में इसे लिखा कोई

मुल्क में चैन हो अमन भी हो
लाठियाँ भाँज कर कहा कोई

*ऋता शेखर 'मधु'*


मंगलवार, 29 सितंबर 2015

रंगा सियार

Image result for रंगा सियार

"हरीश बाबू, अभी आधे घंटे में विद्यालय का कार्यक्रम शुरू होने वाला है। हमें ऊर्जा संरक्षण पर बोलना है और हमने कोई तयारी नहीं की है। आप कृपाकर उसपर आलेख तैयार कर दें।" सह अध्यापक अभिषेक कुमार ने  आग्रहपूर्वक कहा। 

विद्यालय में नए नए आये हरीश बाबू ने हामी भर ली। 


मगर अचानक वे भी कैसे तैयार करते। विद्यालय में इंटरनेट की सुविधा नहीं थी। संयोग से उसी दिन उन्होंने नेटपैक लिया था। उसे ही ऑन किया और गूगल पर गए। सारी जानकारियाँ इकठ्ठा कर के फटाफट आलेख तैयार किया। तब तक अभिषेक बाबू इधर उधर घूमते दिखे। 


कार्यक्रम शुरू हुआ और अभिषेक बाबू ने उस आलेख को पढ़कर सुनाया। आलेख ने खूब वाहवाही बटोरी। जब पुरस्कारों की घोषणा हुई तो प्रथम पुरस्कार अभिषेक बाबू के उत्कृष्ट आलेख को मिला था। हरीश बाबू के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। 
पुरस्कार लेने अभिषेक बाबू मंच पर गए। उनसे पूछा गया कि इस आलेख के लिए उन्होंने कहीं से सहयोग लिया है तो उसका जिक्र अवश्य करें। 


"इसे मैंने खुद अपनी मेहनत से तैयार किया है" 


यह सुनकर हरीश बाबू अवाक् रह गए। अभिषेक बाबू के प्रफुल्लित चेहरे की कुटिल लकीर भी दिख चुकी थी उन्हें। 
हरीश बाबू ने मन में कहा,"रंगा सियार की असलियत कभी न कभी तो सबके सामने आएगी ही"। 
-ऋता शेखर "मधु" 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

हवा पेड़ पौधे हँसी बन के रहते- ग़ज़ल

बह्र  122-122-122-122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
काफ़िया-  आरे
रदीफ़ - न होते
=============================
मतला-
परिंदे कभी भी पुकारे न होते
धरा पर अगर ये सवारे न होते
हुस्न-ए-मतला-
ये संसार हम भी सँवारे न होते
अगर साथ तुम यूँ हमारे न होते
अशआर-
न होती अगर गाँव में बैलगाड़ी
कसम तीसरी के नजारे न होते
==
सियासत हमारी हिफ़ाजत करे तो
यहाँ हम कभी भी बिचारे न होते
==
हवा पेड़ पौधे हँसी बन के रहते
धुआँ पैर अपना पसारे न होते
==
लहर यूँ न उठती समंदर में इतनी
फलक चाँद को जब पुकारे न होते
गिरह-
उदासी भरी रात तन्हा ही रहती
अगर आसमाँ में सितारे न होते
*ऋता शेखर 'मधु'*

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

मायाजाल

यह सर्वविदित है कि मानव शरीर सिर्फ एक शरीर नहीं बल्कि असंख्य कोशिकाओं का समूह है और सभी मिलकर एक खूबसूरत तन की रचना करते हैं। सारी प्रक्रियाएं जो शरीर द्वारा किये जाते हैं वह हर एक कोशिका भी करती है। हर तरह से सक्षम होते हुए भी कोशिका को वह स्वरुप नहीं मिल पाता जो शरीर के साथ रहने पर मिलता है।
परिवार को बिलकुल इसी तरह से समझा जा सकता है। एक पूरा मकान कई कमरों वाला घर होता है। हर कमरा अपने आप में परिपूर्ण है। वहां हर साधन मौजूद रह सकता है। कमरा ही बैठका,कमरा ही रसोई,कमरा ही मनोरंजन और कमरा ही डाइनिंग होता है। कोई रोक कोई टोक। आज़ादी ही आज़ादी। संयुक्त परिवार टूटा तो कम से कम न्यूक्लिअर परिवार तो रहा जहाँ माता पिता और एक या दो बच्चे मस्त हो गए। परिवार के नाम पर थोडा बंधन ज्यादा आज़ादी मिली। समय मिलने पर बाक़ी लोगों का गेट टुगेदर भी हो जाता था।
अब नए नए गैजेट्स ने इस नन्हे से परिवार को भी बिखरा दिया हैं। घर के बाहर की आभासी दुनिया ही रास आने लगी है। यह भी पता नहीं होता की घर में कौन है या कौन बाहर गया है। पहले टेलीफोन एक स्थान पर हुआ करता था। घंटी बजने पर कोई आकर फोन रिसीव कर लेता था। अब सबके अपने फ़ोन है और वह भी पासवर्ड के घेरे में। कोई किसी की मोबाइल नहीं ले सकता। दो अलग अलग कमरों में बैठे लोगों को मिस्ड कॉल से बुलाया जाता है। नाम लेकर जोर जोर से बुलाने की परम्परा भी लुप्त होती जा रही है।
एक बार तो हद ही हो गयी। किसी रिश्तेदार के घर गयी थी। वे बड़े चाव से घर के बारे कुछ कुछ बता रही थी जो शायद उनकी बिटिया को पसन्द नहीं रहा था। अचानक व्हाट्सअप की टुन्न से आवाज़ आई मोबाइल देखने के बाद उन्होंने अचानक टॉपिक बदल दिया। अब समझ में तो यह बात ही गई कि बिटिया रानी की ओ से चुप रहने का आदेश था।
एक ही कमरे में में बैठे सभी सदस्य अपने अपने लैपटॉप पर या अपनी मोबाइल लेकर मस्त हैं। पूरी दुनिया से संवाद चालू है मगर आपस में बातचीत नहीं। बीच बीच में कुछ बातें हुई भी तो काम चलने भर ही हुईं। खाने की टेबल पर खाना लग चूका होता है ठंडा भी हो जाता है सबके जुटते हुए। आए भी तो बायें हाथ से मोबाइल चिपका ही रहता है। खाना खाओ और साथ में टिप टाप भी करते रहो। महिलाएं भी अब पीछे नहीं। किसी खाना खज़ाना टाइप ग्रुप से जुडी है तो पहले फ़ोटो खींची जायेगी। फिर रेसिपी लिखी जायेगी तब घर वालों के लिए परोसी जायेगी।
एक करीबी रिश्तेदार के घर कुछ यूँ देखा। घर की माता जी जो नब्बे से पार हो चुकी हैं और चलने फिरने से लाचार थी, एक कमरे में बैठी थीं। कमरे में सारी सुविधाएं थीं पर वे इस तरह लाचार थी कि स्वयं पानी लेकर नहीं पी पाती थीं। घर के सदस्य उच्च वोल्यूम पर टीवी चलाकर देख रहे थे। इधर वो बुजुर्ग महिला पानी के लिए आवाज़ दे रही थी मगर टीवी के शोर में आवाज़ दब जा रही थी। उनकी आँखों में आंसू गए थे। कहने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि इससे कोई फायदा होता।
आखिर यह आधुनिकता या आधुनिक उपकरण इंसान को किस मंजिल की और लेकर जा रहे है।

अपने ही खोल में समाते जा रहे हैं लोग कछुए की तरह। दिन भर फेसबुक पर बने रहने की प्रवृति क्षणिक ख़ुशी दे रही है पर जीवन वही तो नहीं, यह किशोर बच्चे समझ नहीं पा रहे। जीवन आसान हो गया है गैजेट्स से | कहीं न कहीं निष्क्रियता का भी बोलबाला हो रहा है| 
इन सब से बचिए| समय संयोजन बहुत आवश्यक है| मायाजाल पर रहें, खूब रहें पर समय सीमा भी निर्धारित करें| गैजेट्स को एनज्वाय करे| उसे जीवन मत बनने दें| 
*ऋता*