उत्तरदायित्व का ज्ञान
"अंजना, जरा पानी देना।"
"अंजना, चादर ठीक से ओढ़ा दो बेटा।"
"अंजना, मन भारी लग रहा, कुछ देर मेरे पास बैठो।"
"माँ, पानी भी दिया, चादर भी दिया। पास बैठने का समय नहीं, आपके बेटे आएंगे, वही बैठेंगे।"
बहु की बात सुनकर प्रमिला जी की आंखें छलक गईं।
प्रमिला जी ने बेटे की शादी तब की थी जब उनकी सास जीवित थीं। तीन देवर और दो ननदों वाला भरा पूरा संयुक्त परिवार था। सबसे बड़ी बहू प्रमिला जी ने खुद को गृहस्थी में पूरी तरह से लगा दिया। सास के ताने सुनते सुनते आदी भी हो गईं थीं। बेटे की शादी हुई तो वे नहीं चाहती थीं कि उनकी बहु इस झमेले में पड़े। इसलिए कभी उसे अपने पास नहीं रखा। ईश्वर की निष्ठुरता से उस दिन बुरी तरह से टूट गईं जब उन्हें लिवर कैंसर निकल गया। बड़ी बेटी और दामाद ने उनकी भरपूर सेवा की। बाद में बेटा किसी तरह से तबादला करवाकर माँ के पास आ गया। अब वे बेटी के घर से अपने घर आ गई थीं।आये हुए सिर्फ पाँच दिन ही बीते थे।
अब बेटी रोज़ आकर माँ को देख जाती। कुछ चीज़ें न भी पसन्द आती तो चुप रहकर कर देती। उस दिन भी वह आई। माँ की छलकी आँखें उससे छुप न सकीं। कीमोथेरेपी ने माँ को बहुत कमजोर बना दिया था।
"भाभी, माँ अब कम दिनों की ही मेहमान है। थोड़ा वक्त उनके साथ बिता लिया कीजिये।" सहज भाव से बेटी ने कह दिया।
"तो मैं क्या करूँ, यहां आकर फंस गई हूँ।" भाभी की बात से वह आहत हो गयी।
"छह महीने लगे आपको आने में भाभी। "
"अब तुम मुझे मेरा उत्तरदायित्व बताओगी"
"नहीं, मैंने सोचा था कि बेटा बहु के आ जाने से अच्छा रहेगा। खैर, माँ को ले जा रही हूँ वापस। आप आराम करें।"
दरवाजे पर बेटे ने भी कोरों पर छलक आई बूंदों को चुपचाप से पोंछकर माँ के पास चला गया।
"भाई, आपकी कोई गलती नहीं। गलती तो माँ से हुई जो प्रेमवश आपको परिवार के जंजाल से दूर रखी। भाभी इसे अपना अधिकार समझ बैठीं और उत्तरदायित्व भूल गईं।"
-ऋता शेखर मधु
"अंजना, जरा पानी देना।"
"अंजना, चादर ठीक से ओढ़ा दो बेटा।"
"अंजना, मन भारी लग रहा, कुछ देर मेरे पास बैठो।"
"माँ, पानी भी दिया, चादर भी दिया। पास बैठने का समय नहीं, आपके बेटे आएंगे, वही बैठेंगे।"
बहु की बात सुनकर प्रमिला जी की आंखें छलक गईं।
प्रमिला जी ने बेटे की शादी तब की थी जब उनकी सास जीवित थीं। तीन देवर और दो ननदों वाला भरा पूरा संयुक्त परिवार था। सबसे बड़ी बहू प्रमिला जी ने खुद को गृहस्थी में पूरी तरह से लगा दिया। सास के ताने सुनते सुनते आदी भी हो गईं थीं। बेटे की शादी हुई तो वे नहीं चाहती थीं कि उनकी बहु इस झमेले में पड़े। इसलिए कभी उसे अपने पास नहीं रखा। ईश्वर की निष्ठुरता से उस दिन बुरी तरह से टूट गईं जब उन्हें लिवर कैंसर निकल गया। बड़ी बेटी और दामाद ने उनकी भरपूर सेवा की। बाद में बेटा किसी तरह से तबादला करवाकर माँ के पास आ गया। अब वे बेटी के घर से अपने घर आ गई थीं।आये हुए सिर्फ पाँच दिन ही बीते थे।
अब बेटी रोज़ आकर माँ को देख जाती। कुछ चीज़ें न भी पसन्द आती तो चुप रहकर कर देती। उस दिन भी वह आई। माँ की छलकी आँखें उससे छुप न सकीं। कीमोथेरेपी ने माँ को बहुत कमजोर बना दिया था।
"भाभी, माँ अब कम दिनों की ही मेहमान है। थोड़ा वक्त उनके साथ बिता लिया कीजिये।" सहज भाव से बेटी ने कह दिया।
"तो मैं क्या करूँ, यहां आकर फंस गई हूँ।" भाभी की बात से वह आहत हो गयी।
"छह महीने लगे आपको आने में भाभी। "
"अब तुम मुझे मेरा उत्तरदायित्व बताओगी"
"नहीं, मैंने सोचा था कि बेटा बहु के आ जाने से अच्छा रहेगा। खैर, माँ को ले जा रही हूँ वापस। आप आराम करें।"
दरवाजे पर बेटे ने भी कोरों पर छलक आई बूंदों को चुपचाप से पोंछकर माँ के पास चला गया।
"भाई, आपकी कोई गलती नहीं। गलती तो माँ से हुई जो प्रेमवश आपको परिवार के जंजाल से दूर रखी। भाभी इसे अपना अधिकार समझ बैठीं और उत्तरदायित्व भूल गईं।"
-ऋता शेखर मधु